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________________ श.८ : आमुख भगवई सूक्ष्म जीवों का अस्तित्व और उनमें ज्ञान की खोज जैन दर्शन की मौलिक स्थापना है। सूक्ष्म जीव संपूर्ण लोक में व्याप्त हैं। वे पृथ्वीकाय, अप्काय, तैजसकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय-इन पांच कायों के जीव समूह हैं। उन्हें इन्द्रियज्ञान और अनुमान से नहीं जाना जा सकता। इन्द्रिय ज्ञान और मानसिक ज्ञान के अनंत पर्यायों का सिद्धांत चेतना के असंख्य स्तरों को समझने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह मनोविज्ञान की नई दिशा को उद्घाटित करने वाला सूत्र है। प्रयोग से होने वाली रचना (प्रयोग बंध) का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है। शरीर की रचना (शरीर बंध) और शरीर प्रयोग की रचना (शरीर प्रयोग बंध) परामनोविज्ञान की दृष्टि से बहत मननीय है। सूत्र ३६९ में शरीर प्रयोग की रचना के हेतुओं का वर्गीकरण है। उससे ज्ञात होता है कि औदारिक शरीर के प्रयोग की रचना प्रारंभिक निर्वाचित कोशिका से ही नहीं होती। वह मात्र शरीर रचना का एक घटक तत्त्व है किंतु उसका हेतु नहीं है। औदारिक आदि शरीरों की रचना की वर्गणा (घटक तत्त्व) भिन्न-भिन्न है। औदारिक आदि शरीरों की कालावधि पर विशद रूप में विचार किया गया है। कर्म शरीर की रचना के हेतुओं पर विस्तृत विचार उपलब्ध है। उससे आचार-शास्त्र का भी गहरा संबंध है।' प्रस्तुत शतक में तत्त्वविद्या के साथ कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का भी संकलन है। आजीवकों का स्थविरों के पास आगमन और उनसे चर्चा, आजीवक के बारह श्रमणोपासकों का नामोल्लेख और उनके आचार का निरूपण आजीवक संप्रदाय के विधि-विधानों की जानकारी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस प्रसंग में एक उल्लेखनीय तथ्य की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होता है। उवासगदसाओ में श्रावक की आचार संहिता है। उसमें भी उदुम्बर, बड़, पीपल, कठूमर और पाकर आदि पांच फलों तथा प्याज, लहसुन, कंद-मूल आदि के वर्जन का उल्लेख नहीं है। उत्तरवर्ती ग्रंथों में इनक वर्जन पर अधिक बल दिया गया है। क्या उस पर आजीवक के आचार-शास्त्र का प्रभाव नहीं है? मनुस्मृति में भक्ष्य और अभक्ष्य का निरूपण है। उसमें ब्राह्मण के लिए लहसुन, प्याज आदि का निषेध है। इसके प्रभाव को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अन्ययूथिकों के साथ भगवान महावीर के स्थविरों के संवाद का उल्लेख सातवें उद्देशक में है। भिन्न-भिन्न संप्रदाय के साधुओं का मिलन, वार्तालाप और प्रश्नोत्तर का क्रम सांप्रदायिक उदारता का सूचक है। प्रस्तुत शतक में विभंगज्ञान का सूत्र ज्ञान मीमांसा की प्राचीन परम्परा का अवशेष है। आगम साहित्य में ज्ञान के संस्थानों का प्रज्ञापन था। उसका अनुमान इस अवशेष से होता है। नंदी सूत्र और उसकी चूर्णि में भी ज्ञान के संस्थानों का इतना स्पष्ट निर्देश नहीं है। षटखण्डागम में संस्थान का उल्लेख मिलता है। ये संस्थान हठयोग के चक्र को कोटि के हैं। इनके आधार पर अवधिज्ञान तथा मति श्रुत ज्ञान के संस्थानों की खोज का द्वार प्रशस्त होता है। प्रस्तुत शतक में गतिप्रवाद' अध्ययन का उल्लेख है। इस नाम का कोई स्वतंत्र अध्ययन उपलब्ध नहीं है। प्रज्ञापना का सोलहवां पद प्रयोग पद है। उसका एक भाग गतिप्रवाद है। इस प्रकार प्रस्तुत शतक में तत्त्वविद्या के अनेक सूत्र, इतिहास के अनेक प्रसंग और ज्ञानराशि के प्रकीर्ण बिन्दु उपलब्ध होते हैं। १.भ.८.१२०। २. उत्त, ३६ १०० सुहमा सव्वलोगंमि। ३.भ.८.२०८-२०१। ४. वही. ८४१९:४३३॥ ५.(क) सागार धर्मामृत २/१३। (ख) योगशास्त्र ३.४२-४३। उदुम्बर वटप्लक्ष-काकोदुंबर शाखिनाम्। पिप्पलस्य च नाश्नीयात् फलं कृमि कुलाकुलम् ।। अप्राप्नुवन्नन्यभक्ष्यमपि क्षामो बुभुक्षया। न भक्षयति पुण्यात्मा, पंचोदुम्बरजं फलम्। ६.भ.८/२३०-२४२। ७. मनु. ५.५ लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डु कवकानि च। अभक्ष्याणि द्विजातीनाममध्यप्रभवाणि च॥ ८. भ.८/१०३। ..प्रजा. १६.१७-५५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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