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आमुख
आठवां शतक सृष्टिवाद, ज्ञान, परामनोविज्ञान और कर्मवाद आदि अनेक सिद्धांतों का सूत्रात्मक शैली में लिखा हुआ महाभाष्य है। जैन दृष्टि से सृष्टि के विषय में आगम साहित्य के आधार पर बहुत कम चिंतन हुआ है। दार्शनिक जगत् में उसकी अभिव्यक्ति भी बहुत कम हुई है। जैन सृष्टि का मौलिक सूत्र है अनेकांतवाद। उसके अनुसार प्रत्येक द्रव्य नित्यानित्य, परिणामीनित्य है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय-ये पांच मूल द्रव्य हैं। इनका एक परमाणु नए सिरे से उत्पन्न नहीं होता और विनष्ट नहीं होता। इनमें परिणमन होता रहता है। वह परिणमन अनित्य है। जैन सृष्टि की व्याख्या का मूल आधार परिणमन अथवा पर्याय है। सर्वथा असत् से सत् की सृष्टि हुई-यह सिद्धांत मान्य नहीं है। सत् से सत् की सृष्टि होती है। मूल द्रव्य सत् है। पर्याय परिवर्तित होते रहते हैं। नए पर्याय के उत्पन्न होने पर पूर्व पर्याय असत् बन जाता है। इस प्रकार पर्याय वर्तमान काल में सत् रहता है। अतीत और अनागत की अपेक्षा वह असत् होता है।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय-इन तीन द्रव्यों का जगत् सदा अव्यक्त रहता है। इनमें सूक्ष्म और एक समयवर्ती पर्यायगत परिवर्तन नहीं होता-व्यंजन पर्याय नहीं होता।
जीव और पुद्गल का जगत् व्यक्त है। इनमें स्थूल और दीर्घकालिक पर्यायगत परिवर्तन होता है इसलिए दृश्य सृष्टि जीव और पुद्गलकृत
परिणमन का चक्र निरंतर चलता है। उसके तीन हेतु हैं-प्रयोग, मिश्र और स्वभाव । पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति की सृष्टि जीव के प्रयोग से होती है इसलिए यह प्रयोगकृत परिणमन से होने वाली सृष्टि है।
सृष्टि के विकास की संकल्पना केवल इस पृथ्वी के आधार पर नहीं होगी, जिस पृथ्वी पर हम रह रहे हैं। पृथ्वीकायिक जीव अपने शरीर का निर्माण करते हैं। उसका स्वरूप बदलता रहता है किन्तु सर्वथा अभाव नहीं होता। जलकायिक जीव जल का निर्माण करते हैं। उसके लिए भी वातावरण की अनुकूलता अपेक्षित रहती है। एकांत स्निग्ध और एकांत रूक्ष काल में अग्नि उत्पन्न नहीं होती। स्निग्ध और रूक्ष का संतुलन होने पर उसकी उत्पत्ति होती है। सृष्टि के आधारभूत सूत्रों को समझने के लिए जीव और पुद्गल के प्रयत्नों को समझना आवश्यक है।
ईश्वरवाद के द्वारा सृष्टि की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। सृष्टि के वैचित्र्य की व्याख्या में ईश्वर की सर्वज्ञता, सर्वशक्तिसम्पन्नता और वीतरागता का दर्शन नहीं होता। परिणमनवाद के आधार पर सृष्टि के वैचित्र्य की सम्यक् व्याख्या की जा सकती है। जीव अपने प्रयत्न से नाना रूपों में परिणत होता है। उस नानात्व में पुद्गल सहयोगी बनता है। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक की जीव जातियां अपने-अपने शरीर का निर्माण करती हैं। सृष्टि का एक बड़ा भाग जीवच्छरीर है। वनस्पति जगत् से लेकर मनुष्य तक के सभी छोटे-मोटे प्राणी जन्म लेते हैं, नए शरीर को धारण करते हैं, मरते हैं, पुराने शरीर को छोड़ देते हैं। छोड़ा हुआ शरीर अथवा जीवमुक्त शरीर सृष्टि की विचित्रता का दूसरा बड़ा भाग है। शरीर की रचना, इन्द्रियों की रचना, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की रचना जीव स्वयं अपने अनाभोग वीर्य से करता है।
परमाणु का जगत् भी बहुत विशाल है। वे अपने स्वभाव से नानारूपों में परिणत होते रहते हैं। उनके वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान का परिवर्तन तथा वर्ण आदि में गुणात्मक परिवर्तन होते रहते हैं।
प्रायोगिक परिणमन में कार्य-कारण का सिद्धांत लागू होता है। स्वाभाविक परिणमन में कार्य-कारण का नियम लागू नहीं होता। अनेकांत दर्शन में प्रत्येक घटना के साथ कार्य-कारण की अनिवार्यता नहीं है। न्याय-वैशेषिक दर्शन ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानता है। ईश्वर कर्तृत्व के विषय में पूर्व पंक्तियों में संक्षिप्त विमर्श किया गया है। सृष्टिवाद के लिए द्रष्टव्य सूयगड़ो १/११-६५ का टिप्पण।
पश्चिमी दार्शनिकों ने सृष्टि-रचना और उसमें घटित होने वाली घटनाओं के विषय में यंत्रवाद और प्रयोजनवाद के अभ्युपगम प्रस्तुत किए हैं। क्या सृष्टि रचना का कोई प्रयोजन है अथवा वह प्रयोजन शून्य है? जर्मन दार्शनिक हेगेल प्रयोजनवादी हैं। वे प्रयोजन को आंतरिक मानते हैं। सृष्टि के विकास के नाना स्तरों पर उसका आभास होता है। यंत्रवादी दार्शनिकों का मत है-सृष्टि का विकास प्राकृतिक नियमों से होता है। प्रयोजन मानवीय मस्तिष्क का प्रत्यय है।
प्रस्तुत प्रकरण में अनेकांत दृष्टि से सृष्टि की व्याख्या की गई है। जगत् की समस्त घटनाओं की व्याख्या एकांत यंत्रवाद और एकांत प्रयोजनवाद से नहीं की जा सकती। परमाणु में होने वाले गुणात्मक परिवर्तन की व्याख्या स्वाभाविक परिणमन के आधार पर की जा सकती है। जीव समूह में होने वाले परिवर्तन की व्याख्या प्रायोगिक परिणमन अथवा आंतरिक प्रयोजन के आधार पर की जा सकती है।
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