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भगवई
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श.८ : उ. ६ : सू. २७० भिन्न-भिन्न है।' वृत्तिकार न पर शरीर तथा नारक के प्रसंग में के ही होता है। इस अवस्था में आहारक शरीर की अपेक्षा नैरयिक औदरिकशरीरवान का भी उल्लेख किया है।'
स्यात् त्रिक्रिय, स्यात् चतुष्क्रिय कैसे हो सकता है ? वृत्तिकार ने इसका यहां कायिकी, आधिकरणिकी. प्रादोषिकी, पारितापनिकी और समाधान पूर्व शरीर की अपेक्षा से किया है। इसका तात्पर्य है कि एक प्राणातिपात क्रिया-इन पांच क्रियाओं की विवक्षा है। इनमें क्रिया के नैरयिक पूर्व जन्म में मनुष्य है और मृत्यु के पश्चात् वह नरक में उत्पन्न तीन वर्ग बनते है।
होता है। उसने पूर्व जन्म में मनुष्य के शरीर का निर्माण किया था। १. कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी-ये तीनों क्रियाएं एक मृत्यु के पश्चात् वह शरीर जब तक जीव निर्वर्तित परिणाम को नहीं साथ नियमतः होती है।
त्याग देता तब तक वह निर्वर्तक जीव का ही शरीर कहलाता है। इस २. पारितापनिकी क्रिया होती है तब आद्यवर्ती तीन क्रियाएं नय के अनुसार नैरयिक का पूर्वभववर्ती शरीर नैरयिक जीव का ही अवश्य होती हैं।
कहलाएगा उस शरीर के अस्थि आदि किसी एक देश से आहारक ३. प्राणातिपात क्रिया के साथ आद्यवर्ती चारों क्रियाएं नियमतः शरीर का स्पर्श या परिताप होता है, इस अपेक्षा से वह नैरयिक जीव होती है।
स्यात् त्रिक्रिय, स्यात् चतुष्क्रिय होता है। इस नियम के आधार पर स्यात् त्रिक्रिय, स्यात् चतुष्क्रिय, पूर्ववर्ती शरीर से क्रिया का संबंध कैसे माना जाए? यह एक स्यात् पंचक्रिय-ये तीन विकल्प बनते हैं।
जटिल प्रश्न है। इस प्रश्न के समाधान के लिए भगवई (शतक ५. अक्रिय केवल वीतराग होता है।
१३३-१३४) का भाष्य द्रष्टव्य है। जयाचार्य ने अप्रमत्त का भी अक्रिय के रूप में निर्देश किया है। तैजस शरीर सूक्ष्म और कार्मण शरीर सूक्ष्मतर है। उनको इसका आधार भगवती का पहला शतक है। उसमें अप्रमत्त संयत को परितापित नहीं किया जा सकता और वे सदा औदारिक अथवा वैक्रिय अनारंभ बतलाया गया है। अनारंभ अक्रिय होता है।
शरीर के आश्रित ही होते हैं। अतः उनकी अपेक्षा क्रिया कैसे संभव हो नैरयिक, देव और तिर्यंच-ये अक्रिय नहीं होते। केवल मनुष्य सकती है ? इस प्रश्न का समाधान यह है-औदारिक अथवा वैक्रिय ही वीतराग और अप्रमत्त हो सकता है इसलिए अक्रिय वही हो सकता शरीर को परिताप पहुंचाने पर तैजस और कार्मण शरीर भी परितप्त हो
जाते हैं। वैक्रिय शरीर का प्राण वियोजन नहीं किया जा सकता इसलिए "धुणे कम्मसरीरगं" इस सूत्र से प्रस्तुत विषय की पुष्टि होती वैक्रिय शरीर की अपेक्षा स्यात् पंचक्रिय का विकल्प नहीं बनता। है। नैरयिक अधोलोक में रहते हैं और आहारक शरीर केवल संयमी मनुष्य २७०.सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त इति । २७०. भन्ते! वह ऐसा ही है। भन्ते! वह
ऐसा ही है।
१.पण्ण.२०३२.३01 २. भ. वृ. ८२५८-औदारिकशरीरात-परकीयऔदारिकशरीरमाश्रित्य
कतिक्रियो जीवः? ३. पण्ण. २२/४८.५२। ४. भ. वृ. ८.२५८-सिय अकिरियनि वीतरागावस्यामाश्रित्य नस्या हि
वीतरागत्वादेव न सन्त्यधिकृतक्रिया इति। ५. भ. जो. २. १४६ २५.२८
०. वही, ८/२६७-२०८-अथ नारकल्याधोलोकवर्तित्वाद् आहारकशरीरस्य च मनुष्यलोकवर्तित्वेन तत्क्रियाणामविषयत्वात् कथमाहारकशरीरमाश्रिन्य नारकः स्यात्त्रिक्रियः स्याच्चतुष्क्रिय इति? अत्रोच्यते, यावत पूर्वशरीरमत्युत्सृष्ट जीवनिर्वर्तितपरिणामं न त्यजति नावन पूर्वभावप्रज्ञापनानयमन निर्वर्नकजीवस्यैवेति व्यपदिश्यते घृतघटन्यायेन इत्यतो नारकपूर्वभवदेहो नारकस्यैव नद्देशेन च मनुष्यनोक-वर्तिनास्थ्याविरूपेण यदाहारकशरीरं स्पृश्यते परिताप्यते वा तदाहारकदहा-नारकस्त्रिक्रियचतुष्क्रिया वा भवति कायिकी भावे इतरयारवश्यं भावात पारितापनिकी भाव चाद्य त्रयस्यावश्यं
भावादिति। १०. वही, ८/२६७-२६८-यच्च जसकार्मणशरीरापक्षया जीवानां परितापकत्वं तदौदारिकादि आश्रितत्वेन नयारवसंयं, स्वरूपेण तयोः परिनापयिनुमशक्यत्वान। ११. आयारो २ १६३ और उसका भाष्य।
9. भ. वृ. ८२५० क्रियस्त्वयं न भवति, अवीतरागत्वेन क्रियाणामवश्यं
भावित्वादिति। ८. वहीं, ८.००-२६८--अनेन आहारकादिशरीरत्रयमप्याश्रित्य दण्डकचतुष्टयन नरयिकादिजीवानां त्रिक्रियत्वं चतुष्क्रियत्वं चोक्तं. पंचक्रियत्वं तु निवारितं मारयितुमशक्यन्वानस्येति।
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