SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श.८ : उ. १० : सू. ४५० भगवई विण्णायधम्मे। एस णं गोयमा! मए एष गौतम! मया पुरुषः सर्वाराधकः विज्ञाता भी है। गौतम ! उस्स पुरुष को मैंने पुरिसे सव्वाराहए पण्णत्ते। प्रज्ञप्तः । सर्वाराधक कहा है। तत्थ णं जे से चउत्थे पुरिसजाए से णं । तत्र यः सः चतुर्थः पुरुषजातः सः पुरुषः जो चतुर्थ प्रकार का पुरुष है वह शीलवान पुरिसे असीलवं असुयवं-अणुवरए, अशीलवान् - अश्रुतवान् अनुपरतः,अवि- नहीं है. श्रुतवान भी नहीं है-उपरत नहीं है, अविण्णायधम्मे। एस णं गोयमा! मए ज्ञातधर्मा। एष गौतम ! मया पुरुषः धर्म का विज्ञाता भी नहीं हैं। पुरिसे सव्वविराहए पण्णत्ते॥ सर्वविराधकः प्रज्ञप्तः। गौतम! उस पुरुष को मैंने सर्व विराधक कहा है। भाष्य १. सूत्र ४४९-४५० तीसरा पुरुष शील और श्रुत-दोनों से संपन्न है इसलिए वह भगवान महावीर के समय में अनेक मतवाद प्रचलित थे। समग्रता से मोक्षमार्ग की आराधना करने वाला है। प्रस्तुत प्रकरण में ज्ञानवाद, क्रियावाद और उभयवाद-इन तीन मतों प्रथम पक्ष मिथ्यादृष्टि का है। दूसरा पक्ष व्रत रहित सम्यगदृष्टि का उल्लेख किया गया है। का है। तीसरा पक्ष सम्यग् दृष्टि सम्पन्न व्रती का है।' शील श्रेय है-यह क्रियावाद की अवधारणा है। श्रुत (ज्ञान) प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित अनेकांत दृष्टि को नियुक्तिकार ने श्रेय है-यह ज्ञानवाद की अवधारणा है। श्रुत भी श्रेय है और शील भी विस्तार से समझाया है--कोरे श्रुतज्ञान से मोक्ष नहीं मिलता यदि तप श्रेय है-कोई व्यक्ति श्रुत से पवित्र बनता है और कोई शील से पवित्र और संयम का योग न मिले। चरित्र नहीं है तो बहुत पढ़ा हुआ श्रुत भी बनता है, यह उभयवाद की अवधारणा है। प्रकाश नहीं करता। कोटि-कोटि दीप भी अंधपुरुष को प्रकाश नहीं दे क्रियावाद के बीज मीमांसक दर्शन में खोजे जा सकते है। पाते। ज्ञानवाद की अवधारणा वेदांत में उपलब्ध है। ___ चरित्र है तो अल्प श्रुत भी प्रकाशित कर देता है। चक्षुष्मान भगवान् महावीर ने अनेकांत दर्शन के आधार पर इन तीनों पुरुष को एक दीप भी प्रकाश दे देता है। चंदन का भार ढोने वाला मतभेदों को अस्वीकार किया। उनका दर्शन है-श्रुत और शील गधा चंदन का भागी नहीं, केवल चंदन का भार ढोता है। इसी प्रकार समुदित रूप में ही श्रेय हैं। इस सिद्धांत का अनेकांतात्मक स्वरूप चरित्र शून्य ज्ञानी-मोक्ष का भागी नहीं है, केवल ज्ञान का भार ढोता आराधक और विराधक-इन दोनों पदों के द्वारा समझाया गया। है। क्रियाहीन ज्ञान पूर्णता की ओर नहीं ले जाता। ज्ञान शून्य क्रिया एक पुरुष शीलवान है, श्रुतवान नहीं है-उसे मैं देशाराधक भी पूर्णता की ओर नहीं ले जाती। क्रिया शून्य ज्ञान पंगु है, ज्ञान शून्य कहता हूं। मोक्ष का मार्ग है-सम्यग् दर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्यग् क्रिया अंध है। चारित्र। वह पुरुष शीलवान है, उपरत (अकरणीय से निवृत्त) है किन्तु एक चक्के से रथ नहीं चलता। संयोग ही सफल होता है। ज्ञान श्रुतवान नहीं है, विज्ञात धर्मा नहीं है इसलिए वह मोक्ष मार्ग का प्रकाश करता है। तप कर्म का शोधन करता है। संयम कर्म का निरोध देशाराधक है। सम्यग् दर्शन और सम्यग् ज्ञान रहित है इसलिए वह करता है। इनका समायोग ही मोक्ष का मार्ग है।' मोक्ष मार्ग का पूर्ण आराधक नहीं है। शीलवान है, क्रिया करने वाला प्रस्तुत सूत्र भगवान महावीर की सार्वभौम धर्म की दृष्टि का है इसलिए वह आंशिक आराधना करने वाला है। प्रतिनिधि सूत्र है। जिन जीवों में सम्यग दर्शन, सम्यग् ज्ञान और दूसरा पुरुष श्रुतवान है, विज्ञात धर्मा है किन्तु शीलवान नहीं सम्यग चारित्र की समुदित आराधना नहीं है, वे अपनी एकांगी है, उपरत नहीं है, इसलिए वह देश विराधक है, त्रयात्मक मोक्ष मार्ग आराधना पर भी मोक्ष मार्ग की ओर चरण बढ़ा सकते हैं। इस सूत्र के के केवल चारित्र अथवा शील का अनुपालन नहीं कर रहा है इसलिए आधार पर आचार्य भिक्षु ने प्रथम गुणस्थानवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव की वह आंशिक विराधना करने वाला है। क्रिया. आचरण को विशुद्ध बतलाया था। जयाचार्य ने इस विषय में १. भ. वृ. ८/३४०.-३५०-पुरिस जाय ति पुरुषप्रकाराः सीलवं असुयमिति सुबहुंपि सुयमहीयं किं काही चरणविप्पहीणस्स। कोपर्थः १ उवराए अविन्नाय धम्मेनि 'उपरतः निवृत्तः स्वबुद्ध्या पापात् अंधस्स जह पालित्ता दीवसयसहस्स कोडीवि॥ अविज्ञातधर्मा भावतोऽनधिगतश्रुतज्ञानो बालतपस्वीत्यर्थः गीतार्थानिथितत अप्पपिसूयमहीयं पयासयं होइ चरणजुतस्य। पश्चरणनिरतोऽगीतार्थ इत्यन्येदेसाराहा'नि देशं-स्तोकमंशं मोक्षमार्गस्याराधय इक्कोवि जह पईपो सचक्खुस्सा पयासेड़।। तीत्यर्थः सम्यगबोधरहितत्वात् क्रियापरत्वाच्चेति असीलवं सुयवं ति कोऽर्थः ? जहा खरो चंदणं भारवाही, भारस्य भागी न हु चंदणस्स। अणुवरणविनायधम्मेति पापादनिवृत्तो विज्ञानधर्मा चाविरतिसम्यग्दृष्टिरितिभावः एवं खु नाणी चरणेण हीणो नाणस्स भागी न हु सोग्गईए।। देशविराहा ति देश-स्तोकमंशं ज्ञानादित्रयरूपस्य मोक्षमार्गस्य तृतीयभागरूपं हयं नाणं कियाहीणं हया अन्नाणओ किया। चारिखं विराधयतीत्यर्थः प्राप्सस्य तस्यापालनाद-प्राप्तोर्वा । सव्वाराहए त्ति पासंतो पंगुलो दइठो धावमाणो य अंधओ|| सव्वत्रिप्रकारमपि मोक्षमार्गमाराधयतीत्यर्थः श्रुतशब्देन ज्ञानदर्शनयो: संजोगसिद्धीइ फलं वयंति न हु एगचक्केण रहो पयाइ। संगृहीतत्वात् नहि मिथ्यादृष्टि विज्ञातधर्मा तत्त्वतो भवतीति, एतेन समुदितयो अंधो य पंगु य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्टा ॥ नाणं पयासगं सोहओ-तवा संजमो य गुसि करो। शीलश्रुतयोः श्रेयस्त्वमुक्तमिति ‘सव्वाराहए' त्युक्तम॥ निग्रहंपि समाजोगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ॥ २. आ. नि. गा.९८-१०३ पृ. १२२-१२४ ३. मिध्यात्वी की करणी री चौपई। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy