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________________ भगवई गंधव्वा। चंदा जाव तारा-विमाणा। ताराविमानानि। सौधर्मकल्पः यावदच्युतः। सोहम्मकप्पो - जावच्चुओ अधस्तनाधस्तनौवेयक यावत् उपरि-तहेट्ठिमहेट्ठिमगेवेज्जग जाव उवरिम- नोपरितनगवेयकः। विजयानुत्तरौपपातिक उवरिमगेवेज्जग। विजयअणुत्तरो- यावत् सर्वार्थसिद्धानुत्तरौपपातिकः। एकैववाइय जाव सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरो- कस्मिन् द्विकः भेदः भणितव्यः यावत् ये ववाइय। एक्केक्के दुयओ भेदो पर्याप्तक . सर्वार्थसिद्धानुत्तरौपपातिकभाणियव्वो जाव जे पज्जत्ता- कल्पातीतकवैमानिकदेवपञ्चेन्द्रियप्रयोगसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीतग- परिणताः ते वैक्रिय-तेजस्क-कर्मकशरीरवेमाणियदेवपंचिंदियपयोगपरिणया ते प्रयोगपरिणताः। वेउब्विय-तेया-कम्मा - सरीरप्पयोगपरिणया॥ श.८ : उ. १: सू. ३१-३४ वक्तव्यता। इसी प्रकार दो-दो भेद के अनुसार यावत् स्तनितकुमार भवनवासीप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार पिशाच यावत गंधर्व की वक्तव्यता। चन्द्र यावत् ताराविमान की वक्तव्यता। सौधर्म कल्प यावत अच्युत की वक्तव्यता। सबसे नीचे वाले ग्रैवेयक यावत् सबसे ऊपर वाले ग्रैवेयक की वक्तव्यता। विजय अनुत्तरौपपातिक यावत् सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक की वक्तव्यता। प्रत्येक के अपर्याप्त और पर्याप्त-ये दो भेद वक्तव्य हैं यावत् जो पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतगवैमानिक देव पंचेन्द्रिय प्रयोगपरिणत है वे वैक्रिय, तैजस और कर्मशरीरप्रयोगपरिणत हैं। इंदियं पडुच्च पयोगपरिणति-पदं इन्द्रियं प्रतीत्य प्रयोगपरिणति-पदम् इंद्रिय की अपेक्षा प्रयोग परिणति-पद ३२. जे अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइय- ये अपर्याप्सकसूक्ष्मपृथ्वीकायिकैकेन्द्रिय- ३२. जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एगिदियपयोगपरिणया ते फासिं- प्रयोगपरिणताः ते स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगपरि. एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत है वे स्पर्शनेन्द्रियदियपयोगपरिणया जे पज्जत्ता- णताः, ये पर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिकाः एवं प्रयोगपरिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्त सुहुमपुढविकाइय एवं चेव। जे । चैव। ये अपर्याप्तकबादरपृथ्वीकायिकाः एवं सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रियप्रयोगअपज्जत्ताबादरपुढविकाइय एवं चेव। चैव। एवं पर्याप्तकाः अपि। एवं चतुष्केण परिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार एवं पज्जत्तगा वि। एवं चउक्कएणं भेदेन यावत् वनस्पतिकायिकाः। अपर्याप्त बादर पृीकायिक एकेन्द्रियभेदेण जाव वणस्सति-काइया। प्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार पर्याप्त पृथ्वीकायिक एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इस प्रकार चारचार भेदों के अनुसार यावत् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। ३३. जे अपज्जत्ताबेइंदियपयोग-परिणया ये अपर्यासकद्धीन्द्रियप्रयोगपरिणताः ते ते जिभिंदियफासिंदिय-पयोगपरिणया, जिहन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणताः, ये जे पज्जत्ताबेइंदिय एवं चेव। एवं जाव पर्याप्तकद्वीन्द्रियाः एवं चैव एवं यावत् चउरिंदिया, नवरं-एक्केक्कं इंदियं चतुरिन्द्रियाः, नवरं-एकैकम् इन्द्रियं वढेयव्वं ।। वर्धितव्यम्। ३३. जो अपर्याप्त द्वीन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं वे रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्त द्वीन्द्रिय प्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। केवल इतना विशेष हैत्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में क्रमशः एकएक इन्द्रिय की वृद्धि करनी चाहिए। ३४. जे अपज्जत्तरयणप्पभपुढवि-नेरइय- ये अपर्याप्तरत्नप्रभापृथ्वीनैरयिक पञ्चे- पंचिंदियपयोगपरिणया ते सोइंदिय- न्द्रिय-प्रयोगपरिणताः ते श्रोत्रेन्द्रिय- चक्खिंदिय · घाणिंदिय-जिभिदिय : चक्षुरिन्द्रिय - घ्राणेन्द्रिय . जिह्वेन्द्रियफासिंदियपयोगपरिणया। एवं पज्जत्तगा स्पर्शेन्द्रियप्रयोग-परिणताः। एवं पर्याप्तकाः ३४. जो अपर्याप्त रत्नप्रभा नैरयिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं वे श्रोत्रेन्द्रियचक्षुरिन्द्रिय-घ्राणेन्द्रिय-रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं। इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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