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वाचना-प्रमुख : आचार्य तुलसी संपादक-भाष्यकार : आचार्य महाप्रज्ञ युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी (१९९४-१९९७) के वाचना-प्रमुखत्व में सन् १९५५ में आगम-वाचना का कार्य प्रारंभ हुआ, जो सन् ४५३ में देवर्धिगणी क्षमाश्रमण के सान्निध्य में हुई संगति के पश्चात होनेवाली प्रथम वाचना थी। सन् २००५ तक ३२ आगमों के अनुसंधानपूर्ण मूलपाठ संस्करण और ११ आगम संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद एवं टिप्पण सहित प्रकाशित हो चुके हैं। आयारो (आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध) मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी-संस्कृत भाष्य एवं भाष्य के हिन्दी अनुवाद से युक्त प्रकाशित हो चुका है। आचारांग-भाष्य तथा भगवई खंड-१ क अग्रेजी संस्करण भी प्रकाशित हो गया है। इस वाचना के मुख्य संपादक एवं विवेचक (भाष्यकार, हैं-आचार्यश्री महाप्रज्ञ (मुनि नथमल/युवाचाय महाप्रज्ञ) (जन्म १९२०) जिन्होंने अपने सम्पादन कौशल से जैन आगम-वाङ्मय को आधुनिक भाषा में समीक्षात्मक भाष्य के साथ प्रस्तुति देने का गुरुत कार्य किया है। भाष्य में वैदिक, बौद्ध और जैन साहित्य आयुर्वेद, पाश्चात्य दर्शन एवं आधुनिक विज्ञान वे तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर समीक्षात्मव टिप्पण लिखे गए हैं। आचार्यश्री तुलसी ११ वर्ष की आयु में जैन श्वेताम्ब तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्री कालूगणी के पास दीक्षित होकर २२ वर्ष की आयु में नवमाचार्य बने। आपकी औदार्यपूर्ण वृत्ति एवं असाम्प्रदायिक चिंतन शैली ने धर्म के सम्प्रदाय से पृथक् अस्तित्व को प्रकर किया। नैतिक क्रांति, मानसिक शांति और शिक्षा पद्धति में परिष्कार और जीवन-विज्ञान का त्रि-आयाम कार्यक्रम प्रस्तुत किया। युगप्रधान आचार्य, भारत ज्योति, वाक्पति जैसे गरिमापूर्ण अलंकरण, इन्दिर गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार (१९९३) जैसे सम्मान आपको प्राप्त हुए। साधु और श्रावक के बीच की कड़ी वे रूप में आपने सन् १९८० में समणश्रेणी का प्रारं किया, जिसके माध्यम से देश-विदेश में अनाबाध रूपेण धर्मप्रसार किया जा रहा है। आपने ६० हजा कि. मी. की भारत की पदयात्रा कर जन-जन । नैतिकता का भाव जगाने का प्रयास किया था। हिन्दी, संस्कृत एवं राजस्थानी भाषा में अनेक विषय पर ६० से अधिक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। १८ फरवरी १९९४ को अपने आचार्यपद का विसर्जन का उसे अपने उत्तराधिकारी युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ । प्रतिष्ठित कर दिया। २३ जून सन् १९९७ को आपक महाप्रयाण हुआ। सन् १९९८ में भारत सरकार आपकी स्मृति में डाक-टिकट जारी किया। दशमाचार्य श्री महाप्रज्ञ दस वर्ष की अवस्था में मुनि बने, सूक्ष्म चिंतन, मौलिक लेखन एवं प्रखर वक्तृत्व आपके व्यक्तित्व के आकर्षक आयाम हैं। जैन दर्शन योग, ध्यान, काव्य आदि विषयों पर आपके १५० रे अधिक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत आगम वाचना के आप कुशल संपादक एवं भाष्यकार हैं।
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