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श.८ : उ. २ : सू. १९९
भगवई
है।
१९९. विभंगनाणी णं भंते! पुच्छा। विभंगज्ञानी भदन्त ! पृच्छा।
१९९. भंते ! विभंगज्ञानी की पृच्छा। गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समय, गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाए त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि देशोनया पूर्व- देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम। पुव्वकोडीए अब्भहियाई॥
कोट्या अभ्यधिकानि।
भाष्य १.सूत्र १९२-१९९
मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव-ये चार ज्ञान क्षायोपशमिक प्रस्तुत आलापक में ज्ञानी की कालावधि पर विचार किया हैं-ज्ञानावरण के विलय की तरतमता से उत्पन्न होते हैं इसलिए गया है।
इसकी आदि भी है और पर्यवसान भी है। प्रथम तीन ज्ञान सम्यग १.केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित होता है इसलिए उसकी कोई दर्शन सापेक्ष हैं। मनःपर्यवज्ञान चारित्र सापेक्ष है। केवलज्ञान ज्ञानावरण कालावधि नहीं है।
के सर्वथा विलय होने पर उत्पन्न होता है। एक बार आवरण के सर्वथा २. सादि-सपर्यवसित-मति और श्रुतज्ञान की जघन्य स्थिति नष्ट होने पर पुनः ज्ञान आवृत नहीं होता इसलिए वह अपर्यवसित है अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है।
और वही आत्मा का स्वभाव है। जैन दर्शन के अनुसार मुक्त अवस्था सादि सपर्यवसित मति, श्रुत और अवधि की उत्कृष्ट स्थिति में भी केवल-ज्ञान विद्यमान रहता है। कुछ अधिक छासठ सागर बतलाई गई है। उसकी अपेक्षा यह है-एक मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी के तीन विकल्प हैंसंयमी व्यक्ति विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित संज्ञक-इन चार १. अनादि अपर्यवसितअनुत्तर विमानों में से किसी एक में उत्पन्न होता है वहां से च्युत हो, इसका निदर्शन हैं अभव्य जीव, जिनमें मोक्ष जाने की अर्हता मनुष्य जन्म प्राप्त कर, मृत्यु के उपरान्त फिर वहीं (अनुत्तर विमान)
नहीं है। उत्पन्न होता है। अनुत्तर विमानों की स्थिति नैतीस सागर है। अतः २. अनादि सपर्यवसित३३ सागर मनुष्य भव की स्थितिx३३ सागर-६६ सागर से कुछ इसका निदर्शन है भव्य जीव, जिनमें मोक्ष जाने की अर्हता है। अधिक हो जाती है।
३. सादि सपर्यवसितअवधिज्ञान की जघन्य स्थिति एक समय की है। वृत्तिकार ने सम्यक्त्व का प्रतिपतन हुआ और अंतर्मुहूर्त के बाद फिर इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है-कोई विभंगज्ञानी सम्यक्त्वी सम्यक्त्व प्राप्त हो गया, इस अपेक्षा से उसकी जघन्य स्थिति अंतर्मुहर्त्त बनता है, उसके प्रथम समय में ही विभंगज्ञान अवधिज्ञान में बदल जाता है और उसके अनंतर समय में वह अवधिज्ञान प्रतिपतित हो सम्यक्त्व का प्रतिपतन होने पर जीव वनस्पति आदि में चला जाता है। इस अवस्था में अवधिज्ञान की जघन्य स्थिति एक समय की जाता है। वहां अनंत अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी तक रहकर वहां से होती है।
बाहर आ पुनः सम्यग दर्शन को प्राप्त होता है। उसकी अपेक्षा उत्कृष्ट जयाचार्य ने एक समय की स्थिति का दूसरा हेतु भी बतलाया स्थिति का निरूपण किया गया है। अपार्ध पुद्गल परिवर्त क्षेत्र की है-अवधिज्ञान की उत्पत्ति के प्रथम समय में ही आयु पूर्ण होने पर अपेक्षा-देशोन अपार्ध पुद्गल परिवर्त चार प्रकार के होते हैं। प्रस्तुत उसकी जघन्य स्थिति एक समय की होती है।
प्रकरण में क्षेत्र पुद्गल परिवर्त का निर्देश है।' मनःपर्यव ज्ञान अप्रमत्त क्षण में वर्तमान संयमी के उत्पन्न होता विभंग ज्ञान उत्पन्न हुआ और उत्पत्ति के अनंतर ही उसका है। यदि उत्पत्ति के अनंतर ही वह विनष्ट हो जाता है तो उस स्थिति में प्रतिपतन हो गया, इस अवस्था में उसकी जघन्य स्थिति एक समय उसकी जघन्य स्थिति एक समय की घटित होती है। चारित्र का उत्कृष्ट की होती है। मनुष्य जीवन में देशोन पूर्वकोटि तक विभंग ज्ञान का कालमान देशोन पूर्व कोटि है। चारित्र की प्रतिपति के अनंतर ही अनुभव रहा और वह जीव मरकर सप्तम नरक में उत्पन्न हुआ, इस मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न होता है। और आजन्म उसका अनुवर्तन होता अपेक्षा से विभंगज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति देशोन पूर्व कोटि अधिक है, इस स्थिति में उसकी उत्कृष्ट स्थिति देशोन कोटि पूर्व हो जाती है। तैतीस सागर की बतलाई गई।' १. (क) भ. वृ.८ १९२-१९५।
४. भ. ७.८/१९६-संयतस्याप्रमत्ताद्धायां वर्तमानस्य मनः पर्यवज्ञानमुत्पन्न (ख) भ. जो.२.१३०-६-91
तत् उत्पत्तिसमयसमनन्तरमेव विनष्टं चेत्येवमेकं समयम् तथा चरणकाल २. भ. वृ. ८/१०२-१०५-यदा विभंगज्ञानी सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते तत् उत्कृष्टो देशोना पूर्वकोटी,तत्प्रतिपत्ति-समनन्तरमेव च यदा मनः* प्रथमसमय एव विभंगमवधिज्ञानं भवति तदनन्तरमेव च तत् प्रतिपतति तदा पर्यवज्ञानमुत्पन्नमाजन्म चानुवृत्तं तदा भवति मनःपर्यवस्योत्कर्षतो देशोना एक समयमवधिर्भवतीत्युच्यते।
पूर्वकोटीति। ३. भ. जो. २ पृ. ३८१ वार्तिका-विभंग अज्ञानी नो अवधिज्ञानी किम हवे? अर्ने ५. भ. बृ. ८/१९७-सम्यक्त्वप्रतिपतितस्यान्तर्मुहूर्तोपरि सम्यक्त्वप्रतिपनी।
तेहनी एक समय नी थिति किम? देवता, नारक, मनुष्य, तियंच-पंचेंद्रिय ६. वही, ८/१९८-सम्यकत्वाद् भ्रष्टस्य बनस्पत्यादिष्वनंता मिथ्यादृष्टि तेहने तीन अज्ञान हवै। हिवै मिथ्यादृष्टि नो समदृष्टि थयो, निवारे उत्सर्पिण्यवसर्पिणी इति वाह्य पुनः प्राप्तसम्यग्दर्शनस्येति। तीन अज्ञान नां ज्ञान थया, विभंग ना अवधि थयों। तिवारै एक समय पछेज ७. भ. जो. २. वार्तिक-द्रव्यादिक मेयै करिकै च्यार प्रकार नो पुद्गलपरावर्त ते तेहनो आयु पूर्ण थयो अथवा अनेरे प्रकारे एक समय ते अवधि रही पालो मध्य क्षेत्र थकी पुद्गलपरावर्त जाणवो। पड़यो पिण सम्यक्त नहीं गई। कारण मति, श्रुत ज्ञान नी जघन्य स्थिति ८. भ. वृ. ८/१९९। अंतर्मुहर्न नी छ, सम्यक्त नी पिण एतलीज पूछै। इण न्याय अवधिज्ञान नीं १. वही, ८/१९९। स्थिति जघन्य एक समय नीं।
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