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भगवई
श.८ : उ.२: सू. २००-२०४
नाणीणं अंतर-पदं २००. आभिणिबोहियनाणिस्स णं भंते!अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ?
ज्ञानिनाम् अंतरपदम् आभिनिबोधिज्ञानिनः भदन्त! अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति?
ज्ञानी का अन्तर पद २००. भंते! आभिनिबोधिकज्ञानी कितने अंतराल के बाद पुनः आभिनिबोधिकज्ञानी बनता है। गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः अनंतकाल यावत् क्षेत्र की दृष्टि से देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरिवर्त।
गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवडं पोग्गलपरियट्ट देसूणं॥
गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहर्तम, उत्कर्षण अनन्तं कालं यावत्अपार्धं पुद्गलपरिवर्तं
देशोनम्।
२०१. सुयनाणि - ओहिनाणि -मण- पज्जवनाणीणं एवं चेव।
श्रुतज्ञानि - अवधिज्ञानि - मनःपर्यव- ज्ञानिनामेवं चैव।
२०१. श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी आभिनिबोधिकज्ञानी की भांति वक्तव्य हैं।
२०२. केवलनाणिस्स पुच्छा। गोयमा! नत्थि अंतरं॥
केवलज्ञानिनः पृच्छा। गौतम! नास्ति अन्तरम्।
२०२. भंते ! केवलज्ञानी की पृच्छा। गौतम! अंतराल नहीं होता।
२०३. मइअण्णाणिस्स सुयअण्णा-णिस्स मति-अज्ञानिनः श्रुत-अज्ञानिनश्च पृच्छा। य पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहर्तम, उत्कर्षण उवक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई षट्षष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि साइरेगाई॥
२०३. मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी की पृच्छा। गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः कुछ अधिक छासठ सागरोपम।
२०४. विभंगनाणिस्स पुच्छा। विभंगज्ञानिनः पृच्छा।
२०४. विभंगज्ञानी की पृच्छा। गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, गौतम! जघन्येन अन्तर्महर्त्तम. उत्कर्षण गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहर्त उत्कृष्टतः उक्कोसेणं वणस्सइकालो॥ वनस्पतिकालः।
वनस्पतिकाय।
भाष्य १.सूत्र-२००-२०४
इस प्रकार उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त्त प्रमाण होता है। दो सदृश अवस्थाओं के बीच का काल अन्तर काल होता है।
सम्यक्त्व का प्रतिपतन होने पर जो जीव वनस्पति आदि में आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान
चला जाता है वहां अनंत अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी तक रहकर वहां सम्यक्त्व का प्रतिपतन होने पर आभिनिबोधिक ज्ञान और से बाहर आ पुनः सम्यगदर्शन को प्राप्त होता है। उसकी अपेक्षा श्रुतज्ञान मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान में बदल जाता है। अन्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्ट अन्तरकाल का निरूपण किया गया है। के पश्चात सम्यक्त्व की पुनः प्राप्ति होने पर वे पुनः ज्ञान बन जाते हैं।
पांच ज्ञान और तीन अज्ञान के अंतर काल की तालिकाजघन्य अन्तरकाल
उत्कृष्ट अन्तरकाल आभिनिबोधिक ज्ञान
अन्तर्मुहूर्त
अनंत काल तक अथवा कुछ
कम अपार्ध पुद्गल परिवर्त श्रुत ज्ञान, अवधिज्ञान,
अन्तर्मुहूर्त
अनंत काल तक अथवा कुछ मनःपर्यवज्ञान
कम अपार्थ पुद्गल परिवर्त केवलज्ञान
अंतरकाल नहीं
अंतरकाल नहीं मति अज्ञान
अंतर्मुहूर्त
कुछ अधिक छासठ श्रूत अज्ञान
सागरोपम विभंग ज्ञान
अंतर्मुहूर्त
वनस्पति काल (अनंत काल)
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