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श.९ : उ. ३४ : सू. २५२-२५४
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भगवई
इसिवेरेण
य
गोयमा! नियम नोइसिवेरेहि य पुढे॥
गौतम! नियमम ऋषिवैरेण च नोऋषिवैरैः च स्पृष्टः।
नो-ऋषि के वैर से स्पृष्ट होता है? गौतम ! नियमतः ऋषि के वैर से और नोऋषियों के वैर से स्पृष्ट होता है।
भाष्य १.सूत्र-२५१-२५२
चूर्णिकार का आशय है कि एक व्यक्ति दूसरे को मारता है, वध और वैर-दोनों का गहरा संबंध है। वध करने वाला वैर से बांधता है, दंडित करता है, देश निकाला देता है, वह अनेक व्यक्तियों स्पृष्ट होता है, यह एक सामान्य सिद्धांत है। पुरुष का वध करने वाला के साथ वैर बांधता है। जैसे चोर, पारदारिक, ब्याजखोर आदि नियमतः पुरुष के वैर से स्पृष्ट होता है। पुरुष का वध करने वाला नो- व्यक्ति अनेक व्यक्तियों से वैर का अनुबंध करते हैं। पुरुष के वैर से भी स्पष्ट होता है। इसके दो विकल्प हैं
वृत्तिकार का अभिमत है-जीवों का उपमर्दन करने वाला वैरी १. नो पुरुष के वैर से स्पृष्ट होता है।
होता है। वह सैकड़ों जन्मों तक चलने वाले वैर का बंध करता है। उस २. अनेक नो-पुरुष के वैर से स्पृष्ट होता है।'
एक वैर के कारण वह अनेक दूसरे वैरों से संबंधित होता है और वैर शब्द के अनेक अर्थ है-१. आठकर्म, २. पाप, ३. वैर, ४. उसकी वैर परंपरा अविच्छिन्न रूप से चलने लगती है।' वर्ग्य।
पुरुष का हनन करने वाला पुरुष के वैर से स्पृष्ट होता है, इस प्रस्तुत प्रकरण में वैर का अर्थ दो संदों में किया जा सकता वाक्य में कर्मबंध की अपेक्षा वैरानुबंध का अर्थ अधिक उजागर होता है-१. कर्मबंध २. शत्रुता का भाव। वैर-स्पर्श का उल्लेख प्रस्तुत है। आचार्य भिक्षु ने स्नेहानुबंधी स्नेह और वैरानुबंधी वैर का सुन्दर आगम के प्रथम शतक में हुआ है। उससे वैर का अर्थ कर्म-बंध फलित विवेचन किया है। जो व्यक्ति किसी जीव को मृत्यु से बचाता है, होता है। भगवई १/३७०-७१ के भाष्य में वैरानुबंधी वैर पर विचार उसके साथ उसका स्नेह-बंध हो जाता है। इस जीवन में ही नहीं, किया गया है। वैरानुबंधी वैर की स्पष्ट अवधारणा सूत्रकृतांग में है- किंतु आगामी जन्म में भी उसे देखते ही स्नेह उत्पन्न होता है। जो वेराई कुव्वती वेरी, ततो वेरेहिं रज्जती।'
व्यक्ति किसी जीव को मारता है, उसके साथ उसका द्वेष-बंध हो इसकी व्याख्या में चूर्णिकार और वृत्तिकार ने वैरानुबंध का जाता है। पर-जन्म में भी उसे देखकर द्वेष भाव उभर आता है। मित्र के स्पष्ट उल्लेख किया है।
साथ मित्रता और शत्रु के साथ शत्रुता चलती जाती है।
पुढविक्काइयादीणं आणपाण-पदं पृथ्वीकायिकादीनाम् आनपान पदम् २५३. पुढविक्काइए णं भंते! पुढ- पृथ्वीकायिकः भदन्त !, पृथ्वीकायं चैव विक्कायं चेव आणमइ वा? पाण-मइ आनिति वा अपानिति वा? उच्छ्वसिति वा? ऊससइ वा? नीससइ वा?
वा? निःश्वसिति वा? हंता गोयमा! पुढविक्काइए पुढवि- हन्त गौतम! पृथ्वीकायिकः पृथ्वीकायिक क्काइयं चेव आणमइ वा जाव नीससइ चैव आनिति वा यावत् निःश्वसिति वा। वा॥
पृथ्वीकायिक आदि का आनपान पद २५३. भंते! क्या पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक का ही आन और अपान तथा उच्छ्श्वास और निःश्वास लेते हैं? हां, गौतम ! पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक का ही आन यावत् निःश्वास लेते हैं।
२५४. पुढविक्काइए णं भंते! आउ- पृथ्वीकायिकः भदन्त! अप्कायिकम्
क्काइयं आणमइ वा जाव नीससइ वा? आनिति वा यावत निःश्वसिति वा? हंता गोयमा! पुढविक्काइए णं हन्त गौतम! पृथ्वीकायिकः अप्कायिकम्
२५४. भंते! पृथ्वीकायिक अप्कायिक का आन यावत् निःश्वास लेते हैं ? हां, गौतम ! पृथ्वीकायिक अप्कायिक का
१. भ. वृ.०२५१-२५२- पुरुषस्य हतत्वान्नियमात् पुरुषवधपापेन स्पृष्ट
इत्येको भङ्गः, नत्र च यदि प्राण्यंतरमपि हतं नदापुरुषवरेण नोपुरुषवरेण चेति द्वितीयः, यदि तु बहवः प्राणिनः हतास्तत्र तदा पुरुषवरेण नोपुरुषवैरैश्चेति
तृतीयः। २. सूत्र, चू. पृ. २२, द्रष्टव्य सूयगडो १/१/३ तथा १/९/३ का टिप्पण। ३. भ. १/३७०-३७१। ४. वही, १/३७०-३७१ का भाष्य, पृ.१६४. ५. सूय.१/८/७। ६. सूत्र. चू. पृ. १६७- स वैराणि कुरुने वैरी। ततो अण्णे मारेति, अण्णे बंधति,
अण्णे दंडेत्ति, अण्णे णिव्विसए, आणवेत्ति चोरपारदारियचोपगादिबहुजणं वेरियं करेंति।
७. सूत्र. व. प. १७०- बैरमस्यास्तीति वैरी, स जीवोपमईकारी जन्मशतानुबन्धीनि वैराणि करोति, ततोऽपि च वैरादपरररनुरज्यते, संबध्यते,
वैरपरंपरानुषङ्गो भवतीत्यर्थः। ८. (क) भिक्षु विचार दर्शन पृ. ५१॥ (ख) अनुकंपा की चौपई-११/४३-४५
जीव ने जीवां बचावे तिण सूं, बंध जाए निणरो राग सनेह। जो पर भव में आय मिले तो, देखत पण जागे तिण सूं नेह । जीव में जीव मारे छे तिण सूं, बंध जावे तिण सूं धेष वशेख। ते पर भव में आय मिले तो, देखत पाण जागे तिण सूं धेष।। मित्र सूं मित्रीपणों चलीयो जावे, वेरी सूं वेरीपणों चालीयो जावे। ओ तो राग धेष कर्मा रा चाला, ने श्री जिणधर्म माहे नहीं आवे॥
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