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भगवई
३२५ इसिस्स वधे अणंतबध-पदं
ऋषेःवधे अनंतवध-पदम् २४९. पुरिसे णं भंते! इसिं हणमाणे किं । पुरुषः भदन्त ऋषिं घ्नन किम् ऋषिं हन्ति? इसिं हणइ? नोइसिं हणइ?
नोऋषि हन्ति?
श. ९ : उ. ३४ : सू. २४९-२५२ ऋषि के वध में अनंत-वध पद २४९. भंते! पुरुष ऋषि का हनन करता हुआ क्या ऋषि का हनन करता है ? नोऋषि का हनन करता है? गौतम ! वह ऋषि का भी हनन करता है, नो-ऋषि का भी हनन करता है।
गोयमा! इसिंपि हणइ, नोइसि पि हणइ॥
गौतम ! ऋषिम् अपि हन्ति, नोऋषिम् अपि हन्ति ।
नाशताहण
२५०. से केणद्वेण भंते ! एवं वुच्चइ-इसिं २५०. तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते- २५०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा पि हणइ, नोइसिं पि हणइ?
ऋषिम् अपि हन्ति, नो ऋषिम् अपि हन्ति ? रहा है-ऋषि का भी हनन करता है, नोगोयमा! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु गौतम ! तस्य एवं भवति-एवं खलु अहम् । ऋषि का भी हनन करता है? अहं एगं इसिं हणामि, से णं एगं इसिं एकम् ऋषि हन्मि, सः एकम् ऋषिं घ्नन् गौतम! वह इस प्रकार सोचता है-मैं एक हणमाणे अणंते जीवे हणइ। से तेणद्वेणं ___ 'अनन्तान जीवान्' हन्ति। तत् तेनार्थेन ऋषि का हनन करता हूं किन्तु वह एक गोयमा! एवं वुच्चइ-इसिं पि हणइ, गौतम! एवमुच्यते-ऋषिम् अपि हन्ति, ऋषि का हनन करता हुआ अनंत जीवों का नोइसिं पि हणइ॥ नोऋषिम् अपि हन्ति।
हनन करता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-ऋषि का भी हनन करता
है, नो-ऋषि का भी हनन करता है।
भाष्य १.सूत्र-२४९-२५०
१. ऋषि अनंत जीवों के वध से विरत होता है। मृत्यु के पूर्व आलापक में बतलाया गया है कि एक पुरुष का हनन पश्चात वह अविरत हो जाता है, अनंत जीवों के हनन के प्रति करने वाला अनेक जीवों का हनन करता है। प्रस्तुत आलापक का उसकी विरति नहीं होती इसलिए ऋषि का हंता अनंत जीवों वक्तव्य है--एक ऋषि का हनन करने वाला अनंत जीवों का हनन का हंता है। करता है। अनेक जीवों का हनन करता है. यह बात बुद्धिगम्य है। २. ऋषि अपने जीवन काल में बहुत जीवों को प्रतिबोध देता एक जीव के आश्रित अनेक जीव होते हैं इसलिए एक जीव का है। वे प्रतिबद्ध प्राणी अनंत जीवों के अघातक बन जाते हैं। ऋषि हनन करने वाला अनेक जीवों का हनन करता है। अनंत जीव एक का वध होने पर यह प्रतिबोध का कार्य रुक जाता है। इस अपेक्षा जीव के आश्रित नहीं होते इसलिए यह सिद्धांत बुद्धि से अगम्य से ऋषि का हनन करनेवाला अनंत जीवों का हनन करता है।' प्रतीत हो रहा है। अभयदेव सूरि ने इसे बुद्धिगम्य बनाने के लिए ___ इनमें प्रथम हेतु स्पष्ट है। दूसरा हेतु बहुत दूर की कल्पना दो हेतु दिए हैं
जैसा प्रतीत होता है। वेर-बंध-पदं वैर-बन्ध-पदम्
वैर बंध-पद २५१. पुरिसे णं भंते! पुरिसं हणमाणे किं पुरुषः भदन्त ! पुरुषं घ्नन किं पुरुषवेरेण २५१. भंते ! पुरुष पुरुष का हनन करता पुरिसवेरेणं पुढे ? नोपुरिसवेरेणं पुढे? स्पृष्टः? नोपुरुषवैरेण स्पृष्टः?
हुआ क्या पुरुष के वैर से स्पृष्ट होता है ?
नो-पुरुष के वैर से स्पृष्ट होता है ? गोयमा! नियम-ताव पुरिसवेरेणं पुढे, गौतम ! नियमम्-तावत् पुरुषवैरेण स्पृष्टः, गौतम ! नियमतः उस पुरुष के वैर से स्पृष्ट अहवा पुरिसवेरेण य नो-पुरिसवेरेण य । अथवा पुरुषवैरेण च नोपुरुषवैरेण च होता है, अथवा पुरुष के वैर से और नोपुढे, अहवा पुरिसवेरेण य नोपुरिस- स्पृष्टः, अथवा पुरुषवैरेण च नोपुरुषवैरैः पुरुष के वैर से स्पृष्ट होता है, अथवा पुरुष वेरेहि य पुढे। एवं आसं जाव चिल्ललगं च स्पृष्टः । एवम् अश्वं यावत् 'चिल्ललगं' के वैर से और नो-पुरुषों के वैर से स्पृष्ट जाव अहवा चिल्ललगवेरेण य । यावत् अथवा 'चिल्लग' वैरेण च नो होता है नोचिल्ललग-वेरेहि य पुढे॥ 'चिल्ललग' वैरैः च स्पृष्टः।
इसी प्रकार अश्व यावत् चित्रल यावत् अथवा चित्रल के वैर से और नो-चित्रलों के वैर से स्पष्ट होता है।
२५२. पुरिसे णं भंते! इसिं हणमाणे किं
इसिवेरेणं पुढे ? नोइसिवरेणं पुढे? १. भ. वृ../२४९-५०
पुरुषः भदन्त ! ऋषिं घ्नन किम् ऋषिवैरेण स्पृष्टः? नोऋषिवैरेण स्पृष्टः?
२५२. भंते! पुरुष ऋषि का हनन करता हुआ क्या ऋषि के वैर से स्पृष्ट होता है,
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