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चोत्तीसइमो उद्देसो : चौतीसवां उद्देशक
हिन्दी व्याख्या
मूल
संस्कृत छाया एगस्स वधे अणेगवध-पदं
एकस्य वधे अनेकवध-पदम् २४६. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहः यावत् जाव एवं वयासी-पुरिसे णं भंते! पुरिसं एवम् अवादीत-पुरुषः भदन्त ! पुरुषं घ्नन् हणमाणे किं पुरिसं हणइ? नोपुरिसे किं पुरुषं हन्ति ? नोपुरुषान् हन्ति? हणइ?
एक के वध में अनेक-वध पद २४६. 'उस काल और उस समय राजगृह नगर यावत् गौतम इस प्रकार बोलेभंते ! पुरुष पुरुष का हनन करता हुआ क्या पुरुष का हनन करता है? नो-पुरुष का हनन करता है? गौतम ! पुरुष का भी हनन करता है, नोपुरुष का भी हनन करता है।
गोयमा! पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणइ॥
गौतम ! पुरुषम् अपि हन्ति, नोपुरुषान् अपि हन्ति ।
२४७. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ- पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणइ?
तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-पुरुषम् अपि हन्ति, नोपुरुषान् अपि हन्ति?
गोयमा! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं एगं पुरिसं हणामि, से णं एगं पुरिसं हणमाणे अणगे जीवे हणइ। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणइ॥
गौतम! तस्य एवं भवति-एवं खलु अहम एक पुरुषं हन्मि. सः एक पुरुषं घ्नन्
अनेकान् जीवान' हन्ति। तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-पुरुषम् अपि हन्ति, नोपुरुषान् अपि हन्ति।
२४७. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-पुरुष का भी हनन करता है ? नोपुरुष का भी हनन करता है? गौतम ! वह इस प्रकार सोचता है-मैं एक पुरुष का हनन करता हूं किन्तु वह एक पुरुष का हनन करता हुआ अनेक जीवों का हनन करता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-वह पुरुष का भी हनन करता है, नो-पुरुष का भी हनन करता है।
२४८. पुरिसे णं भंते! आसं हणमाणे किं
आसं हणइ? नोआसे हणइ? गोयमा! आसं पि हणइ, नोआसे वि हणइ॥ से केणद्वेणं? अट्ठो तहेव । एवं हत्थि, सीह, वग्धं जाव चिल्ललगं॥
पुरुषमः भदन्त ! अश्वं घ्नन् किम् अश्वं हन्ति? नोअश्वान हन्ति? गौतम ! अश्वम् अपि हन्ति, नोअश्वान अपि हन्ति । तत् केनार्थेन? अर्थः तथैव । एवं हस्तिनं, सिंह. व्याघ्रं यावत् 'चिल्ललगं'।
२४८. भते! पुरुष अश्व का हनन करता हुआ क्या अश्व का हनन करता है, नोअश्व का हनन करता है? गौतम! वह अश्व का भी हनन करता है, नो-अश्व का भी हनन करता है। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है?-इसका अर्थ उक्त अर्थ की भांति वक्तव्य है। इसी प्रकार हार्थी, सिंह, व्याघ्र यावत् चित्रल की वक्तव्यता।
भाष्य १.सूत्र-२४६-२४८
हैं, कृमि-कीटाणु होते हैं। उसका रुधिर भी दूसरे जीवों के वध का प्रस्तुत आलापक में हिंसा के एक सूक्ष्म पक्ष की ओर ध्यान हेतु बन जाता है इसलिए पुरुष का हनन करने वाला नो-पुरुष का आकृष्ट किया गया है। एक पुरुष की हत्या वास्तव में अनेक जीवों की भी हनन करता है। अश्व और नोअश्व की व्याख्या भी इसी नय से हत्या है। जिसकी हत्या की जाती है उसके शरीर में अनेक जीव होते की जा सकती है।
१. भ. ७.९/२४६-४८
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