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भगवई
श.८ : उ. १ : सू. ४०,४१
पुद्गल के गुण है। संस्थान पुद्गल का लक्षण है। जीव कृत सृष्टि का नानात्व पुगल द्रव्य के संयोग से होता है इसीलिए उसके नानात्व के निरूपण में शरीर, इन्द्रिय, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान का निरूपण किया गया है। जीव जैसे शरीर और इन्द्रिय का निर्माण करता है, वैसे ही अपने वर्ण, गंध, रस. स्पर्श और संस्थान का भी निर्माण करता है।
जीव का वीर्य दो प्रकार का होता है-आभोगिक वीर्य और अनाभोगिक वीर्य। इच्छा प्रेरित कार्य करने के लिए वह आभोगिक
वीर्य का प्रयोग करता है अनाभोगिक वीर्य स्वतः चालित वीर्य है। शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि की रचना अनाभोगिक वीर्य से होती है। प्रायोगिक बंध अनाभोगिक वीर्य से होता है। सिद्धसेन गणि ने दो गाथाएं उद्धृत कर इसका समर्थन किया है।
इस प्रकरण में शरीर के पांच, इन्द्रिय के पांच. वर्ण के पांच, गंध के दो, रस के पांच, स्पर्श के आठ और संस्थान के पांच प्रकार निरूपित है। इनके नानात्व के आधार पर जीवकृत सृष्टि का नानात्व परिलक्षित होता है।
मीसपरिणति-पदं मिश्र-परिणति-पदम्
मिश्र परिणति-पद ४०. मीसापरिणया णं भंते! पोग्गला ४०. मिश्रपरिणताः भदन्त! पुद्गलाः ४०. 'भन्ते! मिश्र परिणत पुद्गल कितने कतिविहा पण्णत्ता? कतिविधाः प्रज्ञप्ताः?
प्रकार के प्रज्ञ..? गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम ! पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- गौतम ! मिश्रपरिणत पुद्गल पांच प्रकार के एंगिदियमीसापरिणया जाव पंचिंदिय- एकेन्द्रियमिश्रपरिणताः यावत् पञ्चेन्द्रिय प्रज्ञप्त हैं, जैसे-एकेन्द्रियमिश्र परिणत मीसापरिणया।। मिश्रपरिणताः।
यावत् पंचेन्द्रिय मिश्र परिणत।
४१. एगिदियमीसापरिणया णं भंते! एकेन्द्रियमिश्रपरिणताः भदन्त! पुद्गलाः ४१. भन्ते ! एकेन्द्रिय मिश्र परिणत पुद्गल पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता? कतिविधा : प्रज्ञप्ताः?
कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं? एवं जहा पयोगपरिणएहिं नव दंडगा एवं यथा प्रयोगपरिणतेषु नव दण्डकाः जैसे-प्रयोगपरिणत के नौ दण्डक कहे गए भणिया, एवं मीसापरिणएहिं वि नव भणिताः, एवं मिश्रपरिणतेषु अपि नव हैं उसी प्रकार मिश्र परिणत के भी नौ दंडगा भाणियव्वा, तहेव सव्वं निरवसेस, दण्डकाः भणितव्याः, तथैव सर्वं निरवशेषं, दण्डक वक्तव्य हैं। शेष सब पूर्ववत्, केवल नवरं-अभिलावो मीसापरिणया' नवरं-अभिलापः 'मिश्रपरिणताः' इतना विशेष है-प्रयोगपरिणत के स्थान भाणियव्वं, सेसं तं चेव जाव जे । भणितव्यः शेषं तच्चैव यावत् ये पर मिथ परिणत कहना चाहिए यावत् जो पज्जत्तासव्वट्ठसिद्ध-अणुत्तरोववाइय पर्याप्तकसर्वार्थसिद्धानुत्तरौपपातिक यावत् पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक यावत जाव आयत-संठाणपरिणया वि॥ आयतसंस्थान-परिणताः अपि।
आयत संस्थान परिणत भी हैं।
भाष्य १. सूत्र ४०-४१
है, वह या तो जीवच्छरीर है या जीवमुक्त शरीर है। जीवच्छरीर प्रयोग १. प्रयोग परिणत पुगल द्रव्य का पहला उदाहरण है एकेन्द्रिय परिणत द्रव्य का उदाहरण है। उसके मौलिक रूप पांच हैंप्रयोग परिणत (सूत्र ८/२)। इसी प्रकार मिश्र परिणत पुद्गल द्रव्य का
१. एकेन्द्रिय जीवच्छरीर उदाहरण भी एकेन्द्रिय मिश्र परिणत द्रव्य है किन्तु दोनों का स्वरूप
२.द्वीन्द्रिय जीवच्छरीर एक नहीं है। एकेन्द्रिय जीव ने औदारिक वर्गणा के जिन पदलों से
३. त्रीन्द्रिय जीवच्छरीर औदारिक शरीर की रचना की है, वे पुद्गल एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं।
४. चतुरिन्द्रिय जीवच्छरीर एकेन्द्रिय जीव के मुक्त शरीर का स्वभाव से परिणामान्तर
५.पंचेन्द्रिय जीवच्छरीर। होता है। वह एकेन्द्रिय मिश्र परिणत है। इसमें जीव का पूर्व कृत प्रयोग इनके अवान्तर भेद असंख्य बन जाते हैं। जीवमुक्त शरीर के तथा स्वभाव से रूपान्तर में परिणमन-दोनों विद्यमान है।
भी मौलिक रूप पांच ही हैं। उनके परिणामान्तर से होने वाले भेद घड़ा मिट्टी से बना। मिट्टी पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीव का असंख्य बन जाते हैं। शरीर है। वह निर्जीव हो गया, एकेन्द्रिय जीव उससे च्युत हो गया। प्रयोग परिणाम, मिश्र परिणाम और स्वभाव परिणाम ये सृष्टि इस अवस्था में मिट्टी उसका मुक्त शरीर है। उसमें घट रूप में परिणत रचना के आधारभूत तत्त्व हैं। प्रथम दो परिणाम जीवकृत सृष्टि हैं। होने की क्षमता है। मिट्टी का परिणामान्तर हुआ और घट बन गया स्वभाव परिणाम अजीव कृत सृष्टि है। वर्ण आदि का परिणमन पुद्गल के इसलिए वह एकेन्द्रिय मिश्र परिणत द्रव्य है।
स्वभाव से ही होता है। इसमें जीव का कोई योग नहीं है। हमारा दृश्य जगत पौगलिक जगत है। जो कुछ दिखाई दे रहा १. त. सू. भा. वृ. ८/३ वृत्ति
ननु वीर्येणानाभोगिकेन, परिपाच्य रसमुपाहरति । अपि चायं प्रायोगिक बंधः, स च भवति कर्तृ सामर्थ्यात्।
परिणमयति धातुतया, स च तमनाभोगवीर्येण ।। इष्टश्च स प्रयोगोऽनाभोगिकवीर्यतस्तस्य॥
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