SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवई श.८ : उ. १ : सू. ३८,३९ सोतिंदिय जाव फासिंदियपयोगपरिणया स्पर्शेन्द्रियप्रयोग-परिणताः। ते वर्णतः ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि जाव कालवर्णपरिणताः अपि यावत् आयत- संठाणपरिणया वि।। आयतसंस्थानपरिणताः अपि। पातिक कल्पातीतगवैमानिक देव पंचेन्द्रिय श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं वे वर्ण से काल वर्ण परिणत भी हैं यावत् आयत संस्थान परिणत भी हैं। सरीरं इंदियं वण्णादिं च पडुच्च शरीरम् इन्द्रियं वर्णादि च प्रतीत्य शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि की पयोगपरिणति-पदं प्रयोगपरिणति-पदम् अपेक्षा प्रयोग परिणति-पद ३९. जे अपज्जत्तासुहमपुढविक्का- ये अपर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिकैकेन्द्रि- ३९. जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक इयएगिदियओरालिया - तेया-कम्मा- यौदारिक - तेजस्क - कर्मक - स्पर्शेन्द्रिय- एकेन्द्रिय औदारिक, तैजस, कर्मशरीर फासिं-दियपयोगपरिणया ते वण्णओ प्रयोगपरिणताः ते वर्णतः कालवर्ण- स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं वे वर्ण से काल-वण्णपरिणया वि जाव आयत- परिणताः अपि यावत् आयतसंस्थान- कालवर्ण परिणत भी हैं यावत् आयत संठाणपरिणया वि। परिणताः अपि। संस्थान परिणत भी है। जे पज्जत्तासुहमपुढविक्काइय एवं चेव। ये पर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक एवं चैव। एवं इसी प्रकार पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एवं जहाणुपुव्वीए, जस्स जति सरीराणि यथानुपूर्व्या, यस्य यति शरीराणि इन्द्रियाणि एकेन्द्रिय औदारिक, तैजस, कर्मशरीर इंदियाणि य तस्स तति भाणियव्वाणि च तस्य तति भणितव्यानि यावत् ये स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता, जाव जे पज्जत्ता-सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरो. पर्याप्तकसर्वार्थसिद्धानुत्तरौपपातिककल्पा- इसी प्रकार यथाक्रम जिसके जितने शरीर ववाइय-कप्पा-तीतगवेमाणियदेव- तीतक . वैमानिकदेवपञ्चेन्द्रियवैक्रिय- और इन्द्रियां हैं वे वक्तव्य है यावत जो पंचिदियवेउब्विय-तेया-कम्मा-सोइंदिय । तेजस्ककर्मक-श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय- पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक जाव फासिं-दियपयोगपरिणया ते प्रयोगपरिणताः ते वर्णतः कालवर्ण- कल्पातीतगवैमानिक देव पंचेन्द्रियवैक्रिय, वण्णओ कालवण्णपरिणया वि जाव परिणताः अपि यावत् आयतसंस्थान- तैजस, कर्मशरीर श्रोत्रेन्द्रिय यावत् आयत-संठाणपरिणया वि। एते नव परिणताः अपि। एते नव दण्डकाः।' स्पर्शनन्द्रियप्रयोगपरिणत है वे वर्ण से दंडगा। कालवर्ण परिणत भी हैं यावत् आयत संस्थान परिणत भी हैं। प्रयोगपरिणत के ये नौ दण्डक हैं। भाष्य १.सूत्र-२.३९ प्रस्तुत प्रकरण में प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्य के नौ दण्डक बतलाए गए हैं १. जीव के प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्य का सामान्य वर्गीकरण। २. पर्याप्त और अपर्याप्त की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत पुनल द्रव्य का वर्गीकरण। ३. शरीर की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्य का वर्गीकरण। ४. इन्द्रिय की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्य का वर्गीकरण। ५. शरीर और इन्द्रिय की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत पुगल द्रव्य का वर्गीकरण। ६. वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत पुदल द्रव्य का वर्गीकरण। ७. शरीर और वर्ण आदि की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत पुदल द्रव्य का वर्गीकरण। ८. इन्द्रिय और वर्ण आदि की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत पुदल द्रव्य का वर्गीकरण। ९. शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्य का वर्गीकरण।' जैन दृष्टि के अनुसार सृष्टि के दो रूप बनते हैं१. जीव कृत सृष्टि २. अजीव निष्पन्न सृष्टि जीव अपने वीर्य से शरीर, इन्द्रिय और शरीर के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं संस्थान का निर्माण करता है। यह जीव कृत सृष्टि है। उसके नानात्व का हेतु है शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि का वैचित्र्य। प्रयोग परिणत पुगल द्रव्य के प्रकरण में शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि के आधार पर जीव कृत सृष्टि के नानात्व का निरूपण किया गया है। शरीर और इन्द्रिय पौगलिक हैं। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये १. (क) भ. वृ.८.३०। (ख) भ. जा.२.१३०/४०-१३१॥ (ग) विस्तार के लिए देखें उत्तर. ३६.६८-२४७ . (घ) पण्ण. १/१०.८८ २. उत्तर.३६/८३,१०५,११६, १२५.१३५.१५४,१६०.१०८, १८०, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy