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भगवई
श. ११ : उ.११: सू.१४७-१४९
परिग्गहियं दसनहं सिरसा-वत्तं मत्थए शिरसावर्त्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा बलं अंजलिं कट्ट बलं रायं जएणं विजएणं राजानं जयेन विजयेन वर्धयन्ति, वर्धयित्वा वद्धाति, वडावेत्ता एवं वयासी-एवं एवमवादीत्-एवं खलु देवानुप्रियाः! खलु देवाणुप्पिया! पभावती देवी नवण्हं प्रभावती देवी नवानां मासानां बहुप्रतिमासाणं बहु-पडिपुण्णाणं जाव सुरुवं पूर्णानां यावत् सुरूपं दारकं प्रजाता। तत् एतं दारगं पयाया। तं एयण्णं देवाणुप्पियाणं देवानुप्रियानां प्रियार्थाय प्रियं निवेदयामः। पियट्टयाए पियं निवेदेमो। पियं भे प्रियं भवतां भवत्। भवतु॥
निष्पन्न संपुट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर राजा बल को जय विजय के द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर इस प्रकार बोली-देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने बहु प्रतिपूर्ण नव मास साढे सात रात दिन के व्यतिक्रांत होने पर यावत् सुरूप पुत्र को जन्म दिया है। इसलिए हम देवानुप्रिय को प्रिय निवेदन करती हैं। आपका प्रिय हो।
१४८. तए णं से बले राया अंगपडि- ततः सः बलः राजा अंगप्रतिचारिकाणाम् यारियाणं अंतियं एयमढे सोच्चा अन्तिकं एनमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टनिसम्म हट्टतुट्ठचित्तमाणदिए णदिए चित्तः आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः परम- पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिस- सौमनस्थितः हर्षवशविर्सपद्मानहृदयः वसविसप्पमाणहियए धाराहयनीव- धारा - हतनीपसुरभिकुसुम - चंचुमालाइयसुरभिकुसुम . चंचुमालइयतणुए। तनुकः उच्छितरोमकूपः ताभ्यः अंगप्रतिऊसवियरोमकूवे तासिं अंगपडि- चारिकेभ्यः मुकुटवर्ज यथामालितम् यारियाणं मउडवज्जं जहामालियं अवमोचं ददाति, दत्वा श्वेतं रजतमयं
ओमोयं दलयइ, दलयित्ता सेतं विमलसलिलपूर्ण गारं प्रगृह्णाति, प्रगृह्य स्ययामयं विमलसलिलपुण्णं भिंगारं मस्तकान् धावति, धावित्वा विपुलं जीवनाह पगिण्हइ, पगिण्हित्ता, मत्थए धोवइ, प्रीतिदानं ददाति, दत्वा सत्करोति, धोवित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं सम्मानयति, सत्कृत्य सम्मान्य प्रतिदलयइ, दलयित्ता सक्कारेइ सम्माणेइ, विसृजति। सक्कारेता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ।
१४८ अंग-प्रतिचारिका से इस अर्थ को
सुनकर, अवधारण कर, राजा बल हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। उसका शरीर धारा से आहत कदंब के सुरभि कुसुम की भांति पुलकित शरीर एवं उच्छ्रसित रोम कूप वाला हो गया। उसने उन अंग-प्रतिचारिकाओं को मुकुट को छोड़ कर धारण किये हुए शेष सभी आभूषण दे दिए। देकर श्वेतरजतमय विमल जल से भरी हई झारी को ग्रहण किया। ग्रहण कर अंग प्रतिचारिकाओं के मस्तक को प्रक्षालित किया। प्रक्षालित कर दासत्व से मुक्त कर जीवन निर्वाह के योग्य विपुल प्रीनिदान दिया। प्रीतिदान देकर सत्कार-सम्मान किया। सत्कारसम्मान कर प्रतिविसर्जित किया।
१४९. तए णं से बले राया कोडुंबिय- ततः सः बलः राजा कौटुम्बिकपुरुषान् पुरिसे सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव वयासी-खिप्पामेव भो देवाणु-प्पिया! भो देवानुप्रियाः ! हस्तिनापुरे नगरे चारक- हत्थिणापुरे नयरे चारग-सोहणं करेह, शोधनं कुरुत, कृत्वा मानोन्मानवर्द्धनं करेत्ता माणुम्माण-बढणं करेह, करेत्ता कुरुत, कृत्वा हस्तिनापुरं नगरं हत्थिणापुर नगरं सब्भितरबाहिरियं । साभ्यन्तरबाहिरिकं आसिक्तआसिय-संमज्जि-ओवलितं जाव गंध- सम्मार्जितोवलिप्तं यावत् गन्ध-वर्तिभूतं वट्टिभूयं करेह य कारवेह य, करेत्ता य कुरुत च कारयत च, कृत्वा च कार-यित्वा कारवेत्ता य जूवसहस्सं वा च यूपसहसं वा चक्रसहस्रं वा पूजामहाचक्कसहस्सं वा पूयामहामहिमसं-जुत्तं महिमसंयुक्तम् उच्छ्रयत, उच्छ्रित्य मामेनाम् उस्सवेह, उस्सवेत्ता ममेत माणत्तियं आज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयथ। पच्चप्पिणह॥
१४९. बल राजा ने कौटुंबिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय! हस्तिनापुर नगर में शीघ्र ही चारक-शोधन-बंदियों का विमोचन करो, विमोचन कर मान-उन्मान (तौल-माप) में वृद्धि करो, वृद्धि कर हस्तिनापुर नगर के भीतरी और बाहरी क्षेत्र को सुगंधित जल से सींचो, झाड़-बुहार कर गोबर का लेप करो यावत् प्रवर सुरभि वाले गंध चूर्णों से सुगंधित गंधवर्तिका के समान करो, कराओ, कर और कराकर यूप-सहस्र और चक्र-सहस्र की पूजा और महामहिमा युक्त
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