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श.८ : उ. ३ : सू. २२३,२२७
भगवई
करता है अथवा उनका छविच्छेद करता
णो तिणद्वे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं नो अयमर्थः समर्थः, नो खलु तत्र शस्त्रं यह अर्थ संगत नहीं है, उस अन्तर में शस्त्र कमइ॥ क्राम्यति॥
का संक्रमण नहीं होता।
भाष्य १. सूत्र २२२-२२३
दो या अधिक खण्डों में जो प्रकंपन होता है, उसका हेतु जीव प्रदेशों का ___ कूर्म आदि प्राणियों के शरीर के दो या अनेक खण्ड कर देने पर विस्तार है। मूल शरीरस्थित जीव से उन प्रदेशों की संलग्नता या उन सबमें स्पंदन होता है। उसके आधार पर जिज्ञासा की गई है क्या निरन्तरता बनी रहती है। शरीर के छिन्न खण्डों में जीव-प्रदेश का स्पर्श होता है ? इसका उत्तर वे जीव-प्रदेश सूक्ष्मतम हैं। उनसे जुड़ा हुआ कर्मशरीर सूक्ष्मतर स्वीकार में दिया गया है। इसका आधार है जीव का संकोच- है और तैजसशरीर सूक्ष्म है। इसलिए अंतरालवर्ती जीव-प्रदेश को विस्तारात्मक स्वभाव।' संकुचित होना और फैलना-ये दोनों किसी भी स्थूल वस्तु से आबाधा-विबाधा नहीं होती। क्रियाएं जीव-प्रदेशों में होती हैं। समुद्घात का सिन्द्रांत संकोच और अनुयोगद्वार में परमाणु के विषय में भी इसी प्रकार का वर्णन विस्तार का सिद्धांत है। समुद्घात की अवस्था में जीव के प्रदेश बाहर उपलबध है।' फैलते हैं और उसकी संपन्नता पर फिर सिमट कर जीवस्थ हो जाते हैं। चरिम-अचरिम-पदं चरिम-अचरिम पदं
चरम-अचरम-पद २२४. कइ णं भंते! पुढवीओ पण्णत्ताओ? कति भदन्त ! पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः?
२२४. 'भंते! पृथ्वियां कितनी प्रज्ञस है? गोयमा! अट्ठ पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं गौतम! अष्ट पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- गौतम! पृथ्वियां आठ प्रज्ञप्त हैं जैसेजहा-रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा, रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तमा, ईषत्प्रारभारा। रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तमी और ईसीपब्भारा॥
इषतप्रारभारा।
२२५. इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी किं चरिमा? अचरिमा? चरिमपदं निरवसेसं भाणियव्वं जाव
इयं भदन्त ! रत्नप्रभापृथिवी किं चरमा? अचरमा? चरमपदं निरवशेषं भणितव्यम् यावत्
२२५. भंते ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी क्या चरम है ? अथवा अचरम है? यहां प्रज्ञापना का चरम पद निरवशेष रूप में वक्तव्य है यावत्
२२६. वेमाणिया णं भंते! फासचरिमेणं किं चरिमा? अचरिमा? गोयमा! चरिमा वि, अचरिमा वि॥
वैमानिकाः भदन्त! स्पर्शचरमेण किं चरमाः? अचरमाः? गौतम ! चरमा अपि, अचरमा अपि।
२२६. भंते! वैमानिक देव स्पर्शचरम से क्या
चरम है अथवा अचरम है? गौतम ! चरम भी हैं, अचरम भी है।
भाष्य १.सूत्र २२४-२२६
इसका विस्तृत वर्णन प्रज्ञापना के दसवें पद में है। रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रस्तुत आलापक में चरम और अचरम का प्रतिपादन किया मध्य में अन्य पृथ्वी नहीं है इसलिए वह चरम नहीं हैं। उसके बाहरी गया है। ये दोनों शब्द सापेक्ष हैं। पर्यन्तवर्ती के अर्थ में चरम और भाग में अन्य पृथ्वी नहीं है इसलिए वह अचरम भी नहीं है।' मध्यवर्ती के अर्थ में अचरम का प्रयोग किया गया है।
विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य प्रज्ञापना का दसवां पद। चरम अचरम का सूत्र यहां प्रज्ञापना से उद्धृत प्रतीत होता है। २२७. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।। २२७. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा
ही है।
१.त. भा. वृ.५/१६-प्रदेश संहार विसर्गाभ्यां प्रदीपवत्। २. अणु. सू. ३९६-३९८॥ ३. भ. वृ.८.२२४-२२६-चरमं नाम प्रान्तं पर्यन्तवर्ति आपेक्षिकं च चरमत्वं, यदुक्तम-'अन्य द्रव्यापेक्षयेदं चरमं द्रव्यमिति यथा पूर्वशरीरापेक्षया चरमशरीर- मिति, तथा अचरमं नाम अप्रान्तं मध्यवर्ति, आपेक्षिक चाचरमत्वं, यदुक्तम-अन्यद्रव्यापेक्षयेदमचरमं द्रव्यं यथाऽन्त्यशरीरापेक्षया
मध्यशरीरमिति। ४. वही, ८/२२४-२२४-यदि हि रत्नप्रभाया मध्येन्या पृथिवी स्यानदा तस्याश्चमरत्वं युज्यते न चास्ति सा तस्मान्न चरमासी तथा यदि तस्या बाद्यतोन्या पृथिवी स्यात्तदा तस्या अचरमत्वं युज्यते न चास्ति सा तस्मान्नाचरमासाविति।
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