________________
सम्पादकीय
भगवई विआहपण्णत्ती का तृतीय खंड पाठक के सम्मुख प्रस्तुत हो रहा है। इसके सम्पूर्ण मूलपाठ का सम्पादन अंगसुत्ताणि भाग २ में हो चुका है। हमने जो सम्पादन-शैली स्वीकृत की है, उसमें पाठ-शोधन और अर्थ-बोध दोनों समवेत हैं। अर्थ बोध के लिए शुद्ध पाठ अपेक्षित है और पाठ शुद्धि के लिए अर्थ-बोध अनिवार्य है।
प्रस्तुत संस्करण अर्थ-बोध कराने वाला है। इसमें मूल पाठ के अतिरिक्त संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद और सूत्रों का हिन्दी भाष्य समवेत है। पाठ-सम्पादन का काम जटिल है। अर्थ-बोध का काम उससे कहीं अधिक जटिल है। कथा-भाग और वर्णन-भाग में तात्पर्य-बोध की जटिलता नहीं है। किन्तु तत्त्व और सिद्धांत का खण्ड बहुत गंभीर अर्थ वाला है। उसकी स्पष्टता के लिए हमारे सामने दो आधारभूत ग्रंथ रहे हैं
१. अभयदेव सूरिकृत वृत्ति-इसे अभयदेवसूरि ने स्वयं विवरण ही माना है और उसे पढ़ने पर वह विवरण-ग्रंथ का बोध ही कराता है, व्याख्या-ग्रंथ का बोध नहीं देता।
२. भगवती जोड़-इसमें श्रीमज्जयाचार्य ने अभयदेवसूरि की वृत्ति का पूरा उपयोग किया है। 'धर्मसी का टबा' का भी अनेक स्थलों पर उपयोग किया है। इसके अतिरिक्त आगम और अपने तत्त्वज्ञान के आधार पर अनेक समीक्षात्मक वार्तिक लिखे हैं।
हमने भाष्य के लिए आगम-सूत्रों, श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा का ग्रंथ साहित्य, वैदिक और बौद्ध परंपरा के अनेक ग्रंथों का उपयोग किया है। 'आयारो' का भाष्य संस्कृत भाषा में लिखा गया है। भगवती का भाष्य हिन्दी में लिखा गया है। ठाणं, सूयगडो आदि की सम्पादन-शैली यह रही-मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी-अनुवाद तथा स्थान और अध्ययन की समाप्ति पर टिप्पण अथवा भाष्य। भगवती की संपादन शैली में एक नया प्रयोग किया गया है-प्रत्येक सत्र अथवा प्रत्येक आलापक (प्रकरण) के साथ भाष्य की समायोजना है। अन्त में छह परिशिष्ट हैं
१. नामानुक्रम
(क) व्यक्ति और स्थान (ख) देवलोक-संबंधी (ग) पशु-पक्षी २. शब्द एवं शब्द-विमर्शानुक्रम ३. भाष्यविषयानुक्रम
४. पारिभाषिक शब्दानुक्रम ५. अभयदेवसूरिकृत वृत्ति-शतक आठ से ग्यारह ६. आधारभूत ग्रंथ-सूची। प्रत्येक शतक के पहले एक आमुख है। पाद-टिप्पण में संदर्भ वाक्य उद्धृत हैं। उपलब्ध आगम-साहित्य में 'भगवती सूत्र' सबसे बड़ा ग्रंथ है। तत्त्वज्ञान का अक्षयकोष है। इसके अतिरिक्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org