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श. ११ : उ. १ : सू. २-५
२. ते णं भंते! जीवा कतोहिंतो उववज्जति किं नेरइएहिंतो उववज्जति ? तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति ? मणुस्सेहिंतो उववज्जंति ? देवेहिंतो उववज्जति ?
गोयमा ! नो नेरइएहिंतो उवव-ज्जंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उवव-ज्जंति, मस्सेहिंतो उववज्जंति देवेहिंतो वि उववज्जति । एवं उववाओ भाणियब्वो जहा वक्कंतीए वणस्सइकाइयाणं जाव ईसाणेति ॥
३. ते णं भंते! जीवा एगसमए णं केवइया उववज्जंति ?
गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जंति ॥
४. ते णं भंते! जीवा समए- समए अवहीरमाणा- अवहीरमाणा केवतिकालेणं अवहीरंति ?
गोयमा ! ते णं असंखेज्जा समए- समए अवहीरमाणा - अवहीरमाणा असंखेओसप्पिणिउस्सप्पिणीहिं
जाहिं अवहीरंति, नो चेवणं अवहिया सिया ।
१. सूत्र २
प्रस्तुत सूत्र में उत्पल पत्र के जीवों की आगति का नियम निर्दिष्ट है । उत्पल पत्र में उत्पन्न होने वाला जीव नरक गति से नहीं आता, शेष तीन गतियों में से किसी एक गति से आकर उत्पल पत्र के रूप में
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ते भदन्त ! जीवाः कुतः उपपद्यन्ते - किं नैरयिकेभ्यः उपपद्यन्ते ? तिर्यग्योनिकेभ्यः उपपद्यन्ते ? मनुष्येभ्यः उपपद्यन्ते ? देवेभ्यः उपपद्यन्ते ?
१. पण्ण ६/७०-७१
गौतम! नो नैरयिकेभ्यः उपपद्यन्ते, तिर्यग्योनिकेभ्यः उपपद्यन्ते, मनुष्येभ्यः उपपद्यन्ते, देवेभ्योऽपि उपपद्यन्ते ।
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एवं उपपातः भणितव्यः यथा अवक्रान्त्यां वनस्पतिकायिकानां यावत् ईशानः इति ।
भाष्य
ते भदन्त ! जीवाः एकसमये कियन्तः उपपद्यन्ते ?
उत्पन्न होता है, यह एक नियम है। इस नियम का समर्थन प्रज्ञापना के उद्वर्तन सूत्र से होता है। नैरयिक जीव नरक से उद्वर्तन कर एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न नहीं होता।' इस नियम का हेतु कहीं व्याख्यात नहीं है। यह अतीन्द्रिय विषय है इसलिए यह अहेतुगम्य है।
गौतम! जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः वा असंख्येयाः वा उपपद्यन्ते ।
ते भदन्त ! जीवाः समये समये अपह्रियमाणाः- अपहियमाणाः कियत्कालेन
अपह्रियन्ते ?
गौतम! ते असंख्याः समये समये अपह्रियमाणाः- अपह्रियमाणाः असंख्येयाभ्यः अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीभ्यः अपह्रियन्ते, नो चैव अपहृताः स्युः ।
१. सूत्र - ३-४
उत्पल पत्र प्रत्येक शरीरी है इसलिए उसमें तथा उसके आश्रय में उत्कर्षतः असंख्य जीव उत्पन्न हो सकते हैं, अनंत नहीं। असंख्येय जीवों का काल की दृष्टि से अनुमापन किया गया है। प्रति समय एक५. तेसि णं भंते! जीवाणं केमहालिया सर- तेषां भदन्त ! जीवानां रोगाहणा पण्णत्ता ? शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन अङ्गुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेण सातिरेकं योजनसहस्रम् ।
गोयमा ! जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उवक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं ॥
भगव
२. भंते! वे जीव कहां से उपपन्न होते हैंक्या नैरयिक से उपपन्न होते हैं ? तिर्यग्योनिक से उपपन्न होते हैं ? मनुष्य से उपपन्न होते हैं ? देव से उपपन्न होते हैं ?
गौतम! वे जीव नैरयिक से उपपन्न नहीं होते, तिर्यग्योनिक से उपपन्न होते हैं, मनुष्य से उपपन्न होते हैं, देव से भी उपपन्न होते हैं। इस प्रकार वनस्पतिकायिक का उपपात अवक्रान्ति पद (प्रज्ञापना ६/८६) की भांति वक्तव्य है यावत ईशान तक ।
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३. भंते! वे जीव एक समय में कितने उपपन्न होते हैं ?
गौतम ! जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय अथवा असंख्येय उपपन्न होते हैं।
४. भंते! वे जीव प्रति समय अपहृत करने पर कितने काल में अपहृत होते हैं ?
भाष्य
एक जीव का अवहार किया जाए तो उनका अवहरण करने में असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का काल लग जाएगा। इसका तात्पर्यार्थ यह है कि असंख्येय अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के जितने समय होते हैं, असंख्येय जीवों का वही परिमाण है।
कियन्महती
गौतम! वे असंख्येय जीव प्रति समय अपहृत करने पर असंख्येय अवसर्पिणीउत्सर्पिणी काल में अपहृत होते हैं। (यह असत् कल्पना है) उनका अपहार किया नहीं जाता।
५. भंते! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी है ?
गौतम ! जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्टतः कुछ अधिक हजार योजन |
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