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________________ भगवई स्पर्श चार (स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण) होते हैं। ' औदारिक शरीर स्थूल, वैक्रिय शरीर उससे सूक्ष्म, आहारक शरीर उससे सूक्ष्म तैजस, उससे सूक्ष्म, कार्मण शरीर (कर्म शरीर) उससे सूक्ष्म होता है। ३६८. एगिंदियओरालियसरीरप्पयोग-बंधे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा औदारिक शरीर के स्वामी मनुष्य और तिर्यंच होते हैं। वैक्रिय शरीर के स्वामी एकेन्द्रिय-वायुकायिक जीव और पंचेन्द्रिय-तिर्यंच, मनुष्य, नारक और देव होते हैं। आहारक शरीर के स्वामी केवल मुनि होते हैं। " तैजस और कार्मण शरीर के स्वामी सब संसारी जीव होते हैं। शरीर का स्वरूप और कार्य औदारिक शरीर स्थूल पुद्गलों से निर्मित और रस आदि सप्त धातुमय होता है। यह प्रत्यक्ष और आधार भूत शरीर है। परिवर्तन और विकास इसी के द्वारा संभव है। वैक्रिय शरीर में विविध रूप निर्माण की शक्ति होती है। यह लब्धि-योगजविभूतिजन्य भी होता है। आहारक शरीर - यह शरीर केवल लब्धि-योगज विभूति जन्य मुनि के होता है। आहारक लब्धि से संपन्न मुनि अपनी संदेह निवृत्ति के लिए अपने आत्म-प्रदेशों से एक पुतले का निर्माण करते हैं और उसे सर्वज्ञ के पास भेजते हैं। वह उसके पास जाकर उनसे संदेह की निवृत्ति कर पुनः मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। तैजस शरीर - इस शरीर का निर्माण तैजस अथवा आग्नेय परमाणु स्कंधों से होता है। इसका कार्य पाचन और दीप्ति है। यह ओरालियसरीरप्पयोगं पडुच्च औदारिकशरीरप्रयोगं प्रतीत्य ३६७. ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कति कतिविहे पण्णत्ते ? विधः प्रज्ञप्तः ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहाएगिंदियओरालिय सरीरप्पयोगबंधे, बेइंदियओरालियासरीरप्पयोगबंधे जाव पंचिदिय ओरालियसरीरप्पयोगबंधे ॥ गौतम ! पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाएकेन्द्रिय औदारिक शरीरप्रयोगबन्धः द्वीन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः पञ्चेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः । १. कर्म प्रकृति ७१-७२। २. त. सू. भा. वृ. २/ ३८ - परं परं सूक्ष्मम् । ३. भ. ८/३६७-३८७ ४. वही. ८ / ३८६-४०४ । ५. वही, ८/४०५-४०६ । १४३ ६. वही, ८/४१२-४३३॥ ७. त. सू. भा. वृ. २/४९ का भाष्य-कर्मणो विकारः कर्मात्मकं कर्मण्यमिति कार्मणम् । Jain Education International श. ८ : उ. ९ : सू. ३६७,३६८ लब्धि - योगज विभूतिजन्य भी होता है। तेजोलब्धि वाला पुरुष शाप देने और अनुग्रह करने में समर्थ होता है। कार्मण शरीर-कार्मण शरीर कर्म से निष्पन्न होता है। तत्त्वार्थ भाष्य में उसके तीन अन्वर्थक बतलाए गए हैं १. कर्म का विकार ८. (क) वही, ८/२१ का भाष्य-शरीरनाम पञ्चविधम्, तद्यथा-औदारिकशरीर नाम, वैक्रियशरीरनाम, आहारकशरीरनाम, तेजसशरीरनाम, कार्मण शरीरनामेति । २. कर्मात्मक ३. कर्ममय । ' कार्मण शरीर कर्म से भिन्न है। कार्मण शरीर कर्म से निष्पन्न होता है और वह संपूर्ण कर्म राशि का आधार बनता है। कर्म और कार्मण शरीर की भिन्नता का मुख्य हेतु यह है - कार्मण शरीर नाम कर्म की प्रकृति है।' इसलिए कर्म और कार्मण शरीर को एक नहीं माना जा सकता।" कार्मण शरीर अपना तथा अन्य शेष शरीरों का कारण है। सूर्य स्वयंप्रकाशी है और वह दूसरे पदार्थ को भी प्रकाशित करता है। वैसे ही कार्मण शरीर स्वयं अपने शरीर की अवस्थिति बनाएं रखता है। और दूसरे का भी कारण है। प्रस्तुत प्रकरण के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है-कर्म शरीर अनादिकालीन है। कर्म प्रवाह रूप में आते हैं, उदय में आकर चले जाते हैं। एकेन्द्रिय भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञसः ? गौतम! पञ्चविधः प्रज्ञसः, तद्यथा कर्मबंध का प्रवाह अविच्छिन्न चलता है। उससे कर्म शरीर को पोषण मिलता रहता है। वह जीर्ण नहीं होता। पोषण के बाह्य हेतु और आंतरिक हेतु दोनों का निर्देश सूत्रकार ने किया है। " औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः औदारिक शरीर प्रयोग की अपेक्षा ३६७. भंते! औदारिकशरीरप्रयोगबंध कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ? गौतम! औदारिकशरीरप्रयोगबंध पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-एकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबंध, द्वीन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबंध यावत् पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबंधा For Private & Personal Use Only ३६८. भंते! एकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोग बंध कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ? गौतम ! एकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोग (ख) पण्ण. २३/३८,४३। ९. त. सू. भा. वृ. २/ ३७ भाष्यानुसारिणी टीका पृ. १९५ - कर्मणा निर्वृत्तं कार्मणम् अशेष कर्मशरीराधारभूतं कुण्डवद् बदरादीनामशेषकर्मप्रसवसमर्थं वा यथा बीजमंकुरादीनाम् एषा च किलोनरप्रकृतिः शरीरनामकर्मणः पृथगेव कर्माष्टकात् समुदयभूतादित्यतः कर्मैव कार्मणम् । १०. वही, २/४९ का भाष्य-कर्म हि कार्मणस्य कारणमन्येषां च शरीराणामादित्यप्रकाशवत् । यथादित्यः स्वात्मानं प्रकाशयति अन्यान्यानि च द्रव्याणि न चास्यान्यः प्रकाशकः एव कार्मणमात्मनश्च कारणमन्येषां च शरीराणामिति । ११. भ. ८/४२०-४३२। www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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