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________________ श. ८ : उ. ९ : सू. ३६६ सरीरप्पयोगं पडुच्च३६६. से किं तं सरीरप्पयोगबंधे ? सरीरप्पयोगबंधे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- ओरालियसरीरप्पयोगबंधे, वे उब्विय- सरीरप्पयोगबंधे, आहारगसरीरप्पयोगबंधे, तेयासरीरप्पयोगबंधे कम्मासरीरप्पयोगबंधे ॥ १. सूत्र ३६३-३६५ जीव असंख्य प्रदेशों का संघात है। वे प्रदेश सदा अविभक्त रहते हैं। कर्म शरीर के कारण उनकी रचना बदलती रहती है। उनका संकोच और विस्तार होता रहता है। जीव के प्रदेशों का संकोच होता है, उसके अनुरूप तैजस और कर्म शरीर के प्रदेशों का भी संकोच हो जाता है। इसी प्रकार जीव के प्रदेशों के विस्तार के अनुरूप ही तैजस और कर्म शरीर के प्रदेशों का विस्तार हो जाता है। इस संकोच और विस्तार की प्रक्रिया को शरीर बंध कहा गया है। इसका मुख्य हेतु है समुद्घात । समुद्घात की अवस्था में जीव के प्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं और पुनः शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं। इसे समझाने के लिए समुद्घात के दो रूप बतलाए गए हैं १. पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक २. प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्ययिक | अभयदेव सूरि ने 'शरीर बंध' इस पक्ष का उल्लेख किया है। शरीर बंध के पक्ष में तैजस और कर्म के प्रदेशों की विवक्षा मुख्य है। जीव के प्रदेश गौण हैं । शरीरी बंध के पक्ष में जीव के प्रदेशों की विवक्षा मुख्य है, तैजस और कर्म शरीर के प्रदेश गौण हैं।' षट्खण्डागम' और तत्त्वार्थ वार्तिक में शरीरी बंध का शरीर बंध से पृथक् निरूपण मिलता है। शरीर बंध दो प्रकार का होता है-पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक और प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्ययिक | १. पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक-शरीर बंध का अर्थ है- तैजस और १. सूत्र ३६६ शरीर के पांच प्रकार हैं। १. औदारिक शरीर २. वैक्रिय शरीर ३. आहारक शरीर ४. तैजस शरीर ५. कर्म शरीर ये सब पृथक् वर्गणाओं से निर्मित होते हैं। १४२ १. भ. वृ. ८ / ३६४ - जीवपासाणत्ति इह जीवप्रदेशानामित्युक्तावपि शरीर बंधाधिकारात् तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेश इतिन्यायेन जीव प्रदेशाश्रिततैजसकार्म्मणशरीरप्रदेशानामिति द्रष्टव्यं शरीरिबंध इत्यत्र तु पक्षे समुद्घातेन विक्षिप्य संकोचितानामुपसर्जनीकृततैजसकार्मणशरीरप्रदेशानां जीव प्रदेशानामेवेति । २. ष. खं. पु. १४.५,६,४४-६२ पृ. ४१-४५१ Jain Education International भाष्य कर्म शरीर के प्रदेशों की रचना । उस रचना का प्रत्यय (मूल कारण) है जीव का प्रयोग | वेदना, कषाय आदि समुद्घात जीव के प्रयत्न से निर्मित होते हैं। सब जीव विभिन्न कारणों से समुद्घात करते हैं। समुद्घात काल में जीव प्रदेशों का बंध होता है। इस बंध में जीव का प्रयोग अतीत कालीन है इसलिए इसे पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक कहा गया है । * प्रज्ञप्तः शरीरप्रयोगं प्रतीत्य३६६. अथ किं तत्शरीरप्रयोगबन्धः ? शरीरप्रयोगबन्धः पञ्चविधः तद्यथा - औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धः, आहारकशरीरप्रयोगबन्धः, तैजसशरीरप्रयोगबन्धः, कर्मशरीरप्रयोग-बन्धः । २. प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्ययिक - केवली समुद्घात का कालमान आठ समय है। प्रथम चार समयों में जीव के प्रदेशों का विस्तार और शेष चार समयों में उनका संकोच होता हैं। पांचवां समय संकोच का पहला समय है। उसकी संज्ञा 'मंथ' है। इस अवस्था में जीव के प्रदेशों का एकत्रीभाव-संघात होना प्रारंभ होता है। यह मंथ का समय ही वर्तमान प्रत्ययिक बंध है। जीव के प्रदेशों का अनुवर्तन करते हुए तैजस और कर्म शरीर के प्रदेशों का बंध अथवा संघात होता है। यह संघात छठे, सातवें और आठवें समय में भी होता है, किन्तु संघात का प्रारंभ पांचवें समय में होता है। यह अभूतपूर्व संघात है इसलिए वर्तमान प्रयोग प्रत्ययिक के लिए यही समय विवक्षित है। वृत्तिकार ने शरीरी बंध के पक्ष का भी उल्लेख किया है। इस पक्ष के अनुसार तैजस और कर्म शरीर वाले जीव के प्रदेशों का बंध अथवा संघात होता है। " समुद्घात के लिए द्रष्टव्य २/७४ का भाष्य । शरीर प्रयोग की अपेक्षा ३६६. वह शरीर प्रयोग बंध क्या है ? शरीरप्रयोगबंध पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-औदारिकशरीरप्रयोगबंध वैक्रियशरीरप्रयोगबंध, आहारकशरीरप्रयोगबंध, तैजस शरीरप्रयोगबंध, कर्मशरीर प्रयोगबंध! भाष्य भगवई शरीर औदारिक शरीर वैक्रिय शरीर वर्गणा औदारिक वर्गणा वैक्रिय वर्गणा आहारक शरीर आहारक वर्गणा तैजस शरीर तैजस वर्गणा कर्म वर्गणा कर्म शरीर प्रथम तीन वर्गणाएं पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ स्पर्श वाली होती हैं इसलिए उनके द्वारा निर्मित शरीर स्थूल होते हैं। तैजस और कर्म वर्गणाओं में पांच वर्ण, दो गंध और पांच रस होते हैं किन्तु ३. त. रा. वा. ५ / २४ की वृत्ति पृ. ४८८ । ४. भ. वृ. ८ / ३६३ - पूर्वः प्राक्कालासेवितप्रयोगे जीवव्यापारो वेदनाकषायादि समुद्घातरूपः प्रत्ययः कारणं यत्र शरीरबंधे स तथा स एव पूर्वप्रयोगप्रत्ययिकः । ५. वही, ८ / ३६४ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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