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भगवई
श.८: उ.९: सू. ३६३-३६५
भाष्य १.सूत्र ३५६-३६२
राशीकरण होता है और समुच्चय बंध में ईंट अथवा पत्थर की चिनाई आलीनकरण बंध-एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के श्लेष से होने होती है। इसी प्रकार मार्ग के निर्माण में सड़कें बिछाई जाती है। इस वाला बंध। उसके चार प्रकार बतलाए गए हैं
उल्लेख से पता चलता है कि प्राचीन काल में चिकनी मिट्टी अथवा १.श्लेष बंध
पत्थरों के पक्के मार्गों का निर्माण किया जाता था। श्लेष द्रव्य के द्वारा दो द्रव्यों का संबंध। जैसे-दीवार, स्तंभ ४.संहनन बंधआदि का संबंध।' इसके कुछ साधनों का उल्लेख किया गया है, संयोग से होने वाला आकृति निर्माण । जैसे-सुधा-चूना, चिखल-चिकनी मिट्टी, श्लेष, लाख, मोम आदि। इसके दो प्रकार है२. उच्चय बंध
१. देश संहनन बंध-अनेक अवयवों की संयोजना से होने राशीकरण, ऊर्ध्वचय अथवा ढेर। जैसे-घास की राशि। वाला बंध। जैसे-शकट का निर्माण। ३. समुच्चय बंध
२. सर्व संहनन बंध-एकीभाव, जैसे-दूध और पानी का समुच्चय बंध में भी ऊर्ध्वचयन होता है। उच्चय बंध में केवल संबंध। सरीरं पडुच्चशरीरं प्रतीत्य
शरीर की अपेक्षा ३६३. से किं तं सरीरबंधे? अथ किं तत्शरीरबन्धः?
३६३. वह शरीर बंध क्या है? सरीरबंधे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- शरीरबन्धः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- शरीर बंध दो प्रकार का प्रज्ञप्त है जैसेपुव्वपयोगपच्चइए य, पडुप्पन्न पूर्वप्रयोगप्रत्ययिकश्च, प्रत्युत्पन्नप्रयोग- पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक, प्रत्युत्पन्न प्रयोग पयोगपच्चइए य॥ प्रत्ययिकश्च।
प्रत्ययिक।
३६४. से किं तं पुव्वपयोगपच्चइए? अथ किं तत्पूर्वप्रयोगप्रत्ययिकः? पुव्वपयोगपच्चइए-जण्ण नेरइयाणं । पूर्वप्रयोगप्रत्ययिकः यत् नैरयिकाणां संसारत्थाणं सव्वजीवाणं तत्थ-तत्थ । संसारस्थानां सर्वजीवानां तत्र-तत्र तैः-तैः तेसु-तेसु कारणेसु समोहण्ण-माणाणं कारणैः समवहन्यमानानां जीवप्रदेशानां जीवप्पदेसाणं बंधे समुप्प-ज्जइ। सेत्तं । बन्धः समुत्पद्यते। सः एषः पूर्वप्रयोगपुव्वापयोगपच्चइए॥
प्रत्ययिकः।
३६४. वह पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक क्या है?
पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक नैरयिक आदि संसारस्थ सब जीव विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कारणों से अपने प्रदेशों का समुद्घात (शरीर से बाहर प्रक्षेपण) करते हैं, उस समय जीव प्रदेशों का बंध (विशेष विन्यास) उत्पन्न होता है। यह पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक है।
३६५. से किं तं पड़प्पन्नपयोग-पच्चइए? अथ किं तत् प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिकः? पडुप्पन्नपयोगपच्चइए-जण्णं केवल प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिकः-यत् केवल- नाणस्स अणगारस्स केवलि- ज्ञानिनः अनगारस्य केवलिसमुद्घातेन समुग्याएणं समोहयस्स ताओ। समवहतस्य तस्मात् समुद्घातात् प्रतिसमुग्घायाओ पडिनियत्तमाणस्स अंतरा निवर्तमानस्य अन्तरा मन्थे वर्तमानस्य मंथे वट्टमाणस्स तेया-कम्माणं बंधे । तैजसकामणयोः बन्धः समुत्पद्यते। किं समुप्पज्जइ। किं कारणं? ताहे से पएसा कारणम् ? तदा तस्य प्रदेशाः एकत्वगताः एगत्तीगया भवंति। सेत्तं पड़प्पन्न- भवन्ति। सः एषः प्रत्युत्पन्नप्रयोगपयोगपच्चइए। सेत्तं सरीरबंधे। प्रत्ययिकः। सः एषःशरीरबन्धः ।
३६५. वह प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्ययिक क्या है? प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्ययिक केवलज्ञानी अनगार जब केवली समुद्घात से समवहत होकर जीव प्रदेशों का विस्तार कर, उस समुद्धात से प्रतिनिवर्तमान होता है-जीव प्रदेशों का संकोच करता है, उस समय अंतरालवर्ती मंथ की क्रिया के क्षण में तैजस और कार्मण शरीर का बंध उत्पन्न होता है। इसका कारण क्या है? समुद्घात से निवृत्ति के समय केवली के जीव प्रदेश एकत्र (संघात) दशा को प्राप्त होते हैं। यह है प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्ययिक। यह है शरीर बंध।
१. (क) भ.वृ.८/३५६/
(ख) ष. खं, पृ. १४,५,६,४१,४४॥
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