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श.८ : उ. ८ : सू. ३२५-३२८
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भगवई
३२५. छविहबंधगस्स णं भंते! षधिबन्धकस्य भदन्त ! सरागछद्मस्थस्य
सरागछउमत्थस्स कति परीसहा कति परीषहाः प्रज्ञप्ताः? पण्णत्ता? गोयमा! चोइस परीसहा पण्णत्ता। गौतम! चतुर्दश परीषहाः प्रज्ञताः। द्वादश बारस पुण वेदेइ-जं समयं सीयपरीसहं पुनः वेदयति-यं समयं शीतपरीषहं वेदयति वेदेइनो तं समयं उसिणपरीसह वेदेइ, जं नो तं समयं उष्णपरीषहं वेदयति, यं समयं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ नो तं समयं । उष्णपरीषहं वेदयति नो तं समयं शीतपरीषहं सीय-परीसहं वेदेइ, जं समयं वेदयति, यं समयं चर्यापरीषहं वेदयति, नो तं चरियापरीसहं वेदइ नो तं समयं समयं शय्यापरीषहं वेदयति, यं समयं सेज्जापरीसहं वेदेइ, जं समयं शय्यापरीषहं वेदयति. नो तं समयं सेज्जापरीसहं वेदेइ नो तं समयं चर्यापरीषहं वेदयति। चरियापरीसहं वेदेइ॥
३२५. भंते! छह प्रकार के कर्म का बंध करने वाले सराग छद्मस्थ के कितने परीषह प्रज्ञप्त हैं? गौतम! छह प्रकार के कर्म का बंध करने वाले सराग छद्मस्थ के चौदह परीषह प्रज्ञप्त हैं। वह वेदन बारह परीषहों का करता है-जिस समय शीत परीषह का वेदन करता है, उस समय उष्ण परीषह का वेदन नहीं करता। जिस समय उष्ण परीषह का वेदन करता है, उस समय शीत परीषह का वेदन नहीं करता। जिस समय चर्या परीषह का वेदन करता है, उस समय शय्या परीषह का वेदन नहीं करता, जिस समय शय्या परीषह का वेदन करता है, उस समय चर्या परीषह का वेदन नहीं करता।
३२६. एक्कविहबंधगस्स णं भंते ! वीय- एकविधबन्धकस्य भदन्त! वीतराग- रागछउमत्थस्स कति परीसहा । छद्मस्थस्य कति परीषहाः प्रज्ञप्ताः? पण्णत्ता? गोयमा! एवं चेव-जहेव छविह- गौतम! एवं चैव-यथैव षड़िधबन्धकस्य। बंधगस्स॥
३२६. भंते! एक प्रकार के कर्म का बंध करने वाले वीतराग छदमस्थ के कितने परीषह प्रज्ञाप्त हैं? गौतम ! छह प्रकार के कर्म का बंध करने वाले सराग छद्मस्थ की भांति व्यक्तव्यता।
३२७. एगविहबंधगस्स णं भंते! एकविधबन्धकस्य भदन्त! सयोगिभव- ३२७. भंते! एक प्रकार के कर्म का बंध
सजोगिभवत्थकेवलिस्स कति परीसहा स्थकेवलिनः कति परीषहाः प्रज्ञप्ताः? करने वाले सयोगी भवस्थ केवली के पण्णता?
कितने परीषह प्रज्ञप्त हैं? गोयमा! एक्कारस परीसहा पण्णत्ता। गौतम ! एकादश परीषहाः प्रज्ञप्ताः। नव पुनः । गौतम! एक प्रकार के कर्म का बंध करने नव पुण वेदे। सेसं जहा वेदयति। शेषं यथा षड़िधबन्धकस्य। वाले सयोगी भवस्थ केवली के ग्यारह छव्विहबंधगस्स॥
परीषह प्रज्ञप्त हैं। वह वेदन नौ परीषहों का करता है। शेष छह प्रकार के कर्म का बंध करने वाले सराग छद्मस्थ की भांति वक्तव्य है।
३२८. अबंधगस्स णं भंते! अयोगि- अबन्धकस्य भदन्त! अयोगिभवस्थ-
भवत्थकेवलिस्स कति परीसहा केवलिनः कति परीषहाः प्रज्ञप्ताः ? पण्णत्ता? गोयमा! एक्कारस परीसहा पण्णत्ता। गौतम ! एकादश परीषहाः प्रज्ञप्ताः। नव पुनः नव पुण वेदेइ-जं समयं सीयपरीसहं वेदयति-यं समयं शीतपरीषहं वेदयति नो तं वेदेइ नो तं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ, जं समयम् उष्णपरीषहं वेदयति, यं समयम् समयं उसिणपरीसहं वेदेइ नो तं समयं उष्णपरीषहं वेदयति नोतं समयं शीतपरीषहं सीयपरीसहं वेदइ, जं समयं चरिया- वेदयति, यं समयं चर्यापरीषहं वेदयति नो तं परीसहं वेदेइ नो तं समयं सेज्जा-परीसहं समयं शय्यापरीषहं वेदयति, यं समयं शय्या वेदइ, जं समयं सेज्जा -परीसहं वेदेइ नो परीषहं वेदयति नो तं समयं चर्यापरीषहं तं समयं चरिया-परीसह वेदेइ।। वेदयति।
३२८. भंते! कर्म का बंध न करने वाले
अयोगी भवस्थ केवली के कितने परीषह प्रज्ञप्त हैं? गौतम! कर्म का बंध न करने वाले अयोगी भवस्थ केवली के ग्यारह परीषह प्रज्ञप्त हैं। वह वेदन नौ परीषहों का करता है। जिस समय शीत परीषह का वेदन करता है, उस समय उष्ण परीषह का वेदन नहीं करता।
जिस समय उष्ण परीषह का वेदन करता __ है, उस समय शीत परीषह का वेदन नहीं
करता। जिस समय चर्या परीषह का वेदन
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