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भगवई
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श.८: उ.८: सू. ३१९-३२४
पंचेव आणुपुव्वी, चरिया सेज्जा वहे य रोगे य। तणफास-जल्लमेव एक्कारस वेदणिज्जम्मि॥१॥
पञ्चैव आनुपूर्व्या,
चर्या शय्या वधश्च रोगश्च । तृणस्पर्श-जल्लमेव च,
एकादश वेदनीये।।
यथाक्रम-(क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश-मशक), चर्या, शय्या, वध, रोग, तृण स्पर्श, जल्ल-इन ग्यारह परीषहों का वेदनीय कर्म में समवतार होता है।
३२०. दंसणमोहणिज्जे णं भंते !कम्मे कति परीसहा समोयरंति? गोयमा! एगे दंसणपरीसहे समो-यरइ॥
दर्शनमोहनीये भदन्त! कर्मणि कति परीषहाः समवतरन्ति? गौतम ! एकः दर्शनपरीषहः समवतरति।
३२०. भंते! दर्शन मोहनीय कर्म में कितने परीषहों का समवतार होता है। गौतम ! दर्शन मोहनीय कर्म में एक दर्शनपरीषह का समवतार होता है।
३२१. चरित्तमोहणिज्जे णं भंते! कम्मे कति परीसहा समोयरंति? गोयमा! सत्त परीसहा समोयरंति, तं जहा
अरती अचेल इत्थी , निसीहिया जायणा य अक्कोसे। सक्कार . पुरक्कारे, चरित्तमोहम्मि सत्तेते॥१॥
चरित्रमोहनीये भदन्त! कर्मणि कति परीषहाः समवतरन्ति? गौतम! सप्त परीषहाः समवतरन्ति, तद्यथा
अरतिः अचेलः स्त्री, निषीधिका याचना च आक्रोशः। सत्कार . पुरस्कारः, चरित्रमोहे
सौते॥
३२१. भंते! चारित्र मोहनीय में कितने
परीषहों का समवतार होता है? गौतम! चारित्र मोहनीय कर्म में सात परीषहों का समवतार होता है, जैसेअरति, अचेल, स्त्री, निषद्या, याचना, आक्रोश, सत्कार-पुरस्कार-चरित्र मोहनीय कर्म में इन सात परीषहों का समवतार होता है।
३२२. अंतराइए णं भंते! कम्मे कति परीसहा समोयरंति? गोयमा! एगे अलाभपरीसहे समोयरइ॥
आन्तरायिके भदन्त ! कर्मणि कति परीषहाः समवतरन्ति? गौतम! एकः अलाभपरीषहः समवतरति।।
३२२. भंते! अंतराय कर्म में कितने परीषहों का समवतार होता है? गौतम! अंतराय कर्म में एक अलाभ परीषह का समवतार होता है।
३२३. सत्तविहबंधगस्स णं भंते! कति परीसहा पण्णत्ता?
सप्तविधबन्धकस्य भदन्त। कति परीषहाः प्रज्ञसाः।
३२३. भंते! सात प्रकार के कर्म का बंध करने वाले पुरुष के कितने परीषह प्रज्ञप्त
गोयमा! बावीसं परीसहा पण्णत्ता। वीसं गौतम! द्वाविंशतिः परीषहाः प्रज्ञप्ताः। पुण वेदेइ-जं समयं सीय-परीसहं वेदेइ विंशतिः पुनः वेदयति-यं समयं शीतपरीषह नो तं समयं उसिण-परीसहं वेदेइ, जं वेदयति नो तं समयम् उष्णपरीषहं वेदयति, समयं उसिण-परीसहं वेदेइ नो तं समयं यं समयं उष्णपरीषहं वेदयति नो तं समयं सीय-परीसहं वेदेइ, जं समयं चरिया- शीतपरीषहं वेदयति, यं समयं चर्यापरीषहं परीसह वेदेइ नो तं समयं निसी- वेदयति, नो तं समयं निषीधिकापरीषहं हियापरीसहं वेदेइ, जं समयं निसी. वेदयति, यं समयं निषीधिका परीषहं हियापरीसहं वेदेइ नो तं समयं वेदयति नो तं समयं चर्या-परीषहं वेदयति॥ चरियापरीसहं वेदे।
गौतम ! सात प्रकार के कर्म का बंध करने वाले पुरुष के बाईस परीषह प्रज्ञप्त हैं। वह वेदन बीस परीषहों का करता है-जिस समय शीत परीषह का वेदन करता है, उस समय उष्ण परीषह का वेदन नहीं करता है, जिस समय उष्ण परीषह का वेदन करता। उस समय शीत परीघह का वेदन नहीं करता। जिस समय चर्या परीषह का वेदन करता है, उस समय निषद्या परीषह का वेदन नहीं करता। जिस समय निषद्या परीषह का वेदन करता है, उस समय चर्या परीषह का वेदन नहीं करता।
३२४. एवं अट्ठविहबंधगस्स वि॥
एवम् अष्टविधबन्धकस्याति।
३२४. इसी प्रकार आठ प्रकार के कर्म का बंध करने वाले पुरुष के परीषह की वक्तव्यता।
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