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भगवई
१. सूत्र ३१५-३२८
प्रस्तुत आलापक में कर्म प्रकृति और परीषह के संबंध का प्रतिपादन किया गया है।
भूख प्यास आदि अनेक शारीरिक, मानसिक और परिस्थितिजनित समस्याएं हैं। उनकी संज्ञा परीषह है।' मुनि के लिए विधान है कि वह परीषह पर विजय पाए।
उमास्वाति ने परीषह विजय के दो उद्देश्य बतलाए हैंमार्गाच्यवन और निर्जरा । *
प्रज्ञा परीषह और ज्ञान परीषह- ये दोनों परीषह ज्ञान से संबद्ध है इसलिए इनका समवतार ज्ञानावरणीय कर्म में होता है। उत्तराध्ययन" में ज्ञान के स्थान पर अज्ञान परीषह का उल्लेख मिलता है। अभयदेव सूरि ने ज्ञान परीषह के दो अर्थ किए हैं१. ज्ञान होने पर मद का वर्जन ।
२. ज्ञान न होने पर दीनता का परिवर्जन । "
सिद्धसेन गणि ने ज्ञान परीषह की व्याख्या की है। उनके अनुसार अपने विशिष्ट ज्ञान का गर्व न करना ज्ञान परीषह जय है । अज्ञान ज्ञान का प्रतिपक्ष है। वह भी परीषह बनता है। तप आदि के अनुष्ठान द्वारा अज्ञान पर विजय पाई जा सकती है।
अकलंक ने अज्ञान परीषह जय का उल्लेख किया है। " भगवती के कुछ आदर्शों में अज्ञान - ' अन्नाणं' पाठ भी मिलता है। अकलंक ने अकार को लुप्त मानकर अज्ञानपरक व्याख्या की है और सिद्धसेन गणि ने अकार को लुप्त नहीं माना इसलिए उन्होंने ज्ञानपरक व्याख्या की है। तात्पर्यार्थ में दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। ज्ञान में अहंकार न हो और अज्ञान में दीनता का भाव न हो, यह प्रतिपक्ष परक अर्थ ज्ञान और अज्ञान- दोनों में विवक्षित है।
वेदन का संबंध वेदनीय कर्म से है इसलिए भूख प्यास आदि ग्यारह परीषहों का समवतार वेदनीय कर्म में किया गया है। "पंचेव आणुपुवी"-इस पद के द्वारा एक क्रम में आने वाले भूख, प्यास, शीत, उष्ण और दंशमशक-इन पांच परीषहों का ग्रहण किया गया है।
१. विस्तार के लिए द्रष्टव्य ६ / ३३-३४ का भाष्य ।
२. द्रष्टव्य उत्तर, अध्ययन २ का आमुख और टिप्पण |
३. न. सू. ९/८ ।
भाष्य
४. उत्तर २ / ४२-४३।
५. भ. वृ. ८/३१६ - ज्ञानं मत्यादि तत्परिषहणं च तस्य विशिष्टस्य सद्भावे मदवर्जनमभावे च दैन्यपरिवर्जन ग्रंथांतरे त्वज्ञानपरीषह इति पठ्यते ।
६. त. सू. भा. वृ. १/१ - ज्ञानं तु श्रुताख्यं चतुर्दशपूर्वाण्येकादशांगानि, समस्तश्रुतधरोऽहमिति गर्वमुद्वहते तत्रागर्वकरणात् ज्ञानपरीषहजयः । ज्ञानप्रतिपक्षेणाप्यज्ञानेनागमशून्यतया परीषहो भवति, ज्ञानावरणक्षयोपशमोदयविजृम्भितमेतदिति स्वकृतकर्मफलपरिभोगादपैति तपोनुष्ठानेन चेत्येव
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श. ८ : उ. ८ : सू. ३२८
करता है, उस समय शय्या परीषह का वेदन नहीं करता। जिस समय शय्या परीषह का वेदन करता हैं, उस समय चर्या परीषह का वेदन नहीं करता ।
अभयदेव सूरि ने इस प्रकरण में एक महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रस्तुत की है। भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी और दंशमशक का निमित्त पाकर जो वेदना अथवा पीड़ा होती है, वह वेदनीय कर्म से उत्पन्न है। मच्छर काटता है, सर्दी लगती है, गर्मी लगती है-वह वेदनीय कर्म से उत्पन्न नहीं है। भूख, प्यास आदि परीषहों को सहन करना चारित्र है। उसका संबंध चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से है।
आत्मा, पुनर्जन्म आदि परोक्ष तत्त्वों के प्रति होने वाला संशय मन को विचलित कर देता है। इस स्थिति में दर्शन एक परीषह बन जाता है। इस संशय का कारण दर्शन मोहनीय कर्म है। इसलिए दर्शन परीषह का समवतार दर्शन मोहनीय कर्म में किया गया है। उमास्वाति ने दर्शन परीषह के स्थान पर अदर्शन परीषह का उल्लेख किया है।"
चारित्र धर्म में अरुचि पैदा हो जाती है, मन चारित्र में रमण नहीं करता, इसका हेतु अरति मोहनीय कर्म है। इसलिए अरति परीषह का समवतार अरति मोहनीय कर्म में किया गया है।
वस्त्र लज्जानिवारण के लिए होता है। अचेल रहना एक परीषह है। इसका समवतार जुगुप्सा मोहनीय कर्म में होता है। स्त्री परीषह का समवतार पुरुष वेद मोहनीय कर्म में होता है।
अभयदेव सूरि ने स्त्री परीषह के प्रतिपक्ष के रूप में पुरुष परीषह का भी उल्लेख किया है। उनके अनुसार पुरुष परीषह का समवतार स्त्री वेद-मोहनीय कर्म में होता है। "
निषद्या - एकांत भूमि में उपसर्ग के भय की संभावना रहती है इसलिए इसका समवतार भय मोहनीय कर्म में किया गया है । याचना के क्षण में अभिमान समस्या पैदा करता है इसलिए याचना परीषह का समवतार मान मोहनीय कर्म में किया गया है।
आक्रोश परीषह का क्रोध मोहनीय कर्म और सत्कार - पुरस्कार परीषह का मान मोहनीय कर्म में समवतार होता है।
सामान्यतः इन सबका समावेश चारित्र मोहनीय में होता है। इष्ट वस्तु की प्राप्ति में बाधक अंतराय कर्म है इसलिए अलाभ परीषह का समवतार अंतराय - कर्म में होता है। "
परीषह उत्पत्ति के कारण इस प्रकार बताए गए हैं
मालोचयतो ज्ञानपरीषहजयो भवति ।
७. त. रा. वा. ९/९ की वृत्ति ।
८. भ. वृ. ८/३१९-पंचेव आणुपुव्वीति क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकपरीषहाः इत्यर्थः एतेषु च पीडैव वेदनीयोत्थाः तदधिसहनं तु चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादिसंभवं अधिसहनस्य चारित्ररूपत्वादिति ।
९. त. सू. भा. वृ. ९/९ तथा उसका भाष्य ।
१०. भ. वृ. ८ / ३२१ -स्त्रीपरीषहपुरुषवेदमोहे स्त्र्यपेक्ष्या तु पुरुषपरीषहस्त्रीवेदमोहे, तत्त्वत्तः स्त्र्याद्यभिलासरूपत्वात्तस्य । १९. वही ८/३२१।
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