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________________ श.८ : उ.८ : सू. ३२८,३२९ भगवई १२. क्षुधा परीषह उत्पत्ति का कारण कर्म २१. तृण स्पर्श वेदनीय कर्म १.प्रज्ञा ज्ञानावरणीय कर्म २२. जल्ल वेदनीय कर्म २. अज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म कर्मबंध की पांच भूमिकाएं हैं३. अलाभ अन्तराय १. आयुष्य कर्म का बंध नहीं होता, उस क्षण में प्राणी समविध ४. अरति चारित्र मोहनीय कर्म कर्म का बंधक होता है। ५. अचल चारित्र मोहनीय कर्म २. आयुष्य कर्म के बंधकाल में प्राणी अष्टविध कर्म का बंधक ६. स्त्री चारित्र मोहनीय कर्म होता है। ७. निषद्या चारित्र मोहनीय कर्म ३. सराग छद्मस्थ आयु और मोह कर्म की वर्जना कर षविध ८. याचना चारित्र मोहनीय कर्म कर्म का बंधक होता है। ९. आक्रोश चारित्र मोहनीय कर्म ४. वीतराग छद्मस्थ एकविध कर्म का बंधक होता है। १०. सत्कार-पुरस्कार चारित्र मोहनीय कर्म ५. सयोगा-भवस्थ केवली एकविध कर्म का बंधक होता है। ११.दर्शन दर्शन मोहनीय कर्म ६. अयोगी-भवस्थ केवली कर्म का अबंधक होता है। वेदीय कर्म तत्त्वार्थ सूत्र में युगपत् उन्नीस परीषहों की भजना (विकल्प) १३. पिपासा वेदनीय कर्म बतलाई गई है। भाष्य के अनुसार चर्या, शय्या और निषद्या-इनमें १४. शीत वेदनीय कर्म से किसी एक के होने पर शेष दो का अभाव होता है। सप्तविध बंधक १५. उष्ण वेदनीय कर्म के प्रकरण में चर्या और निषद्या का विरोध बतलाया गया है। षडविध १६. दंश मशक वेदीय कर्म बंधक के प्रकरण में चर्या और शय्या का विरोध बतलाया गया है। १७. चर्या वेदनीय कर्म अभयदेव सूरि के अनुसार सप्तविध बंधक में औत्सुक्य होता है, १८.शय्या वेदनीय कर्म इसलिए वह चर्या के मध्यावधि में अल्पकालिक शय्या का प्रयोग कर १२.वध वेदनीय कर्म लेता है। इस अपेक्षा से चर्या और निषद्या का विरोध बतलाया गया २०. रोग वेदनीय कर्म द्रष्टव्य-सप्तविधादि बंधक के साथ परीषहों के साहचर्य का यंत्र--- कर्म बंधक परीषह सप्तविध और अष्टविध बंधक जीवों के बावीस (२२) उत्कृष्ट एक साथ बीस (२०) परीषह। षइविध बंधक सराग छद्मस्थ के चौदह (१४) उत्कृष्ट एक साथ बारह (१२) परीषह। एकविध बंधक वीतराग छद्मस्थ के चौदह (१४) उत्कृष्ट एक साथ बारह (१२) परीषह। एकविध बंधक सयोगी भवस्थ केवली के ग्यारह (११) उत्कृष्ट एक साथ नौ (९) परीषह। अबंधक अयोगी भवस्थ केवली के ग्यारह (११) उत्कृष्ट एक साथ नौ (९) परीषह। वेदन सूरिय-पदं सूर्य-पदम् ३२९.जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे सूर्यो उद्गमनमुहूर्ते उम्गमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति? दूरे च मूले च दृश्येते? मध्यान्तिकमुहूर्ने मूले मज्झंतियमुहत्तंसि मूले य दूरे य च दूरे च दृश्येते? अस्तमनमुहूर्ते च दूरे च दीसंति? अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य मूले च दृश्येते? दीसंति? हंता गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया हन्त गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्यो उग्गमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति, उद्गमनमुहूर्ते दूरे च मूले च दृश्येते, मन्झंतियमुहत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति, मध्यान्तिकमुहूर्ते मूले च दूरे च दृश्यते, अत्थमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति॥ अस्तमनमुहूर्ते दूरे च मूले च दृश्यते। सूर्य-पद ३२९. भंते! जंबूद्वीप द्वीप में उदय के मुहूर्त में सूर्य दूर होने पर भी निकट दिखाई देते हैं? मध्याह्न के मुहूर्त में निकट होने पर भी दूर दिखाई देते हैं ? अस्तमन के मुहूर्त में दूर होने पर भी निकट दिखाई देते है? हां, गौतम! जंबूद्वीप द्वीप में उदय के मुहूर्त में सूर्य दूर होने पर भी निकट दिखाई देते हैं। मध्याह्न के मुहूर्त में निकट होने पर भी दूर दिखाई देते हैं। अस्तमन के मुहूर्त में दूर होने पर भी निकट दिखाई देते हैं। १. उत्तरा. नि.गा, ७३-७८) ४. भ. वृ. ८/३२३-अथ नैषेधिकीवच्छय्यापिचर्यया सह विरुद्रेति न तयोरेकदा संभवस्ततश्चैकोनविंशतिरेव परीषहाणामुत्कर्षेणैकदा बेदनं प्रापमिति नेवं, यतोग्रामदिगमनप्रवृत्ती यदा कश्चिदौत्सुक्यादनिवृत्ततत्परिणाम एव विश्राम भोजनाद्यर्थमित्वरशय्यायां वर्तते तदोभयमप्यविरुद्धमेव । ३. न. स. भा. वृ. ८.१७-तथा चर्याशय्यानिषद्यापरीषहाणामेकस्य संभवे द्वयोरभावः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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