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________________ श.९ : उ.३३ : सू. १९० ३०० भगवई १९०. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य अम्बा- १९०. 'क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता कुमारस्स अम्मापियरो दोच्चं पि पितरौ द्वितीयमपि उत्तराप्रकमणं सिंहासनं ने दूसरी बार उत्तराभिमुख सिंहासन की उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयाति, रचयतः, रचयित्वा जमालेः क्षत्रियकुमारस्य रचना कराई। कराकर क्षत्रियकुमार रयावेत्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स श्वेत-पीतकैःकलशैः स्नपयतः स्नपयित्वा जमालि को श्वेत-पीत कलशों से स्नान सेयापीयएहिं कलसेहिं ण्हावेंति, पक्ष्मलसुकुमालया सुरभिणा गन्धकाषा- कराया। स्नान कराकर रोएंदार, सुकुमाल ण्हावेत्ता पम्हलसुकुमालाए सुरभीए । यिणा गात्राणि रुक्षयतः, रुक्षयित्वा सरसेन सुरभित गंध-वस्त्र से गात्र को पौंछा। गंधकासाईए गायाई लूति, लूहेत्ता गोशीर्षचन्दनेन गात्राणि अनुलिम्पतः, पौंछकर सरस गोशीर्षचंदन का गात्र पर सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अनुलिप्य नासानिःश्वासवातोह्यं चक्षुःहरं अनुलेप किया। अनुलेप कर नासिका की अणुलिंपति, अणुलिंपित्ता नासानिस्सा- वर्ण-स्पर्शयुक्तं हयलालापेलवातिरेकं धवलं निःश्वास वायु से उड़ने वाला, चक्षुहर वर्ण सवायवोज्झं चक्खुहरं वण्ण- कनकखचितांत-कर्म महार्ह हंसल-क्षण- और स्पर्श से युक्त, अश्व की लाल से भी फरिसजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलं पटशाटकं परिधत्तः, परिधाय हारं पिनह्यतः, अधिक प्रतनु, धवल किनार पर सोने के कणखचिंततकम्मं महरिहं हंसलक्खण- पिनह्य अद्वहारं पिनह्यतः, पिनह्य एकावलिं तार से जड़ा हुआ बहुमूल्य अथवा पडसाडगं परिहिंति, परिहित्ता हारं पिनह्यतः पिनह्य मुक्तावलिं पिनह्ययतः, महापुरुष योग्य हंस लक्षण वाला पिणन्द्रेति, पिणद्वेत्ता अद्धहारं । पिनह्य रत्नावलिं पिनह्यतः, पिनह्य एवम्- पटशाटक पहनाया। पहनाकर हार पिणद्धेति, पिणवेत्ता एगावलिं। अङ्गदानि केयूराणि कटकानि 'तुडियाइ' पहनाया। हार पहनाकर अर्द्धहार पहनाया। पिणन्द्रेति, पिणद्वेत्ता मुत्तावलिं कटिसूत्रकं दशमुद्रा-नन्तकं वैकक्षसूत्रकं अर्द्धहार पहनाकर एकावली पहनाई। पिण-ति, पिणछेत्ता रयणावलिं। 'मुरविं' कंठ 'मुरविं' प्रालम्ब-कुण्डलानि एकावली पहनाकर मुक्तावली पहनायी। पिणछेति, पिणद्वेत्ता एवं-अंगयाइं चूड़ामणिं चित्रं रत्न-सङ्कटोत्कटं मुकुटं मुक्तावली पहनाकर रत्नावली पहनायी। केयूराई कडगाइं तुडियाई कडिसुत्तगं पिनह्यतः, किं बहुना ? ग्रथित-वेष्टिम- रत्नावली पहनाकर इसी प्रकार-अंगद, दसमुद्दाणंतगं विकच्छसुत्तगं मुरविं पूरिम-संघातिमेन चतुर्विधेन माल्येन कल्प- केयूर, कड़े, बाजूबंध, करधनी, दसों कंठमुरविं पालंबं कुंडलाइं चूडामणिं रुक्षकं इव अलंकृत-विभूषितं-कुर्वतः । अंगुलियों में मुद्रिकाएं, विकक्षसूत्र चित्तं रयणसंकड़क्कडं मउर्ड पिणछेति, (उत्तरासंग पर पहना जाने वाला आभरण) किं बहुणा? गंथिम-वेढिम-पूरिम सूरज के आकार का आभरण, कण्ठसंघातिमेणं चउविहेणं मल्लेणं मुरवि, मुक्तामाला, कुण्डल, चूड़ामणि, कप्परुक्खगं पिव अलंकिय-विभूसियं रत्नों की प्रचुरता से उत्कृष्ट बना हुआ करेंति॥ विचित्र मुकुट पहनाया। और अधिक क्या? गूंथी हुई, वेष्टित, पूरित और संहत की हुई-इन चार प्रकार की मालाओं से क्षत्रियकुमार जमालि को कल्पवृक्ष की भांति अलंकृत, विभूषित कर दिया। भाष्य १.सूत्र-१९० कडग-कड़ा, चूड़ी के आकार का आभूषण, जो हाथ और पांव में शब्द-विमर्श पहना जाता है। उत्तरावक्रमण-उत्तराभिमुख-उत्तरापक्रमण।' तुडिया बाजूबंध, भुजा पर पहनने का आभूषण। सेयापीए-चांदी और सोने से बना हुआ।' कटिसूत्र-करधनी, सोने चांदी की पट्टी या लड़ियों का गहना, जो पम्हसुउमाल-रोएंदार सुकुमाल। कमर में पहना जाता है। गंधकासाईए-सुगंध युक्त वस्त्र। विकच्छसुत्तग-विकक्ष-सूत्र, यज्ञोपवीत की तरह पहना हुआ हार, एकावलि-मोतियों की एक हाथ लम्बी माला। वृत्ति के अनुसार उत्तरासंग पर पहना जाने वाला आभरण।" इसका अर्थ है विचित्र मणियों की माला।' मुरवी-मुरज के आकार का आभरण। मुक्तावलि-मुक्ताहार। कंठ मुरवि-कंट में पहना जाने वाला मुरज के आकार का आभरण। रत्नावलि-रत्नहार। प्रालंब-सीने तक लटकने वाली माला। अंगद-वह आभरण, जो कोहनी के उपर भुजा में पहना जाता है। कुंडल-कान में पहनने वाला आभूषण। केयूर-भुजा का आभरण। वृत्तिकार ने अंगद और केयूर में आकार- चूड़ामणि-शीश-फूल। भेद माना है। १६. भ. वृ.९/१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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