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________________ भगवई श. ८ : उ. २ : सू. २१४,२१५ श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान के पर्यवों में कौन किससे अल्प बहू, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं? पज्जवाणं, मइअण्णाणपज्जवाणं, अज्ञानपर्यवाणां, श्रुत-अज्ञानपर्यवाणां, सुयअण्णाणपज्जवाणं, विभंगनाण- विभंगज्ञानपर्यवाणां च कतरे कतरेभ्यः पज्जवाण य कयरे कयरेहितो अप्पा अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः? वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विशेषाधिकाः वा? विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा मणपज्जवनाण- गौतम! सर्वस्तोकाः मनःपर्यवज्ञानपर्यवाः, पज्जवा, विभंगनाणपज्जवा अणंतगुणा, विभंगज्ञानपर्यवाः अनन्तगुणाः, अवधिओहिनाणपज्जवा अणंतगुणा, सुय- ज्ञानपर्यवाः अनन्तगुणाः, श्रुत-अज्ञानअण्णाणपज्जवा अणंतगुणा, सुयनाण- पर्यवाः अनन्तगुणाः, श्रुतज्ञानपर्यवाःपज्जवा विसेसाहिया, मइअण्णाण- विशेषाधिकाः, मति-अज्ञानपर्यवाः अनन्तपज्जवा अणंतगुणा, आभिणिबोहिय- गुणाः, आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाः नाण-पज्जवा विसेसाहिया, केवल- विशेषाधिकाः, केवलज्ञानपर्यवाः अनन्तनाणपज्जवा अणंतगुणा॥ गुणाः। गौतम! मनःपर्यवज्ञान के पर्यव सबसे अल्प हैं। विभंगज्ञान के पर्यव उनसे अनंतगुण, अवधिज्ञान के पर्यव उनसे अनन्तगुण, श्रुत अज्ञान के पर्यव उनसे अनंतगुण, श्रुतज्ञान के पर्यव उनसे विशेषाधिक, मति अज्ञान के पर्यव उनसे अनंतगुण, मतिज्ञान के पर्यव उनसे विशेषाधिक, केवलज्ञान के पर्यव उनसे अनन्तगुण हैं। भाष्य ४३. सूत्र २०८-२१४ प्रस्तुत आलापक में ज्ञान के पर्यवों-विशेष धर्मों का प्रतिपादन किया गया है। आभिनिबोधिक ज्ञान-यह सामान्य निर्देश है। उसका विकास सब आभिनिबोधिकज्ञानी जीवों में समान नहीं होता। अभयदेवसूरि ने क्षयोपशम की तरतमता के आधार पर पर्यवों को षट्स्थान पतित बतलाया है १. कोई आभिनिबोधिकज्ञानी अनन्त भाग वृद्धि से विशुद्ध। २. कोई आभिनिबोधिकज्ञानी असंख्य भाग वृद्धि से विशुन्द्र। ३. कोई आभिनिबोधिकज्ञानी संख्येय भाग वृद्धि से विशुद्ध। ४. कोई आभिनिबोधिकज्ञानी संख्येय गुण वृद्धि से विशुद्ध। ५. कोई आभिनिबोधिकज्ञानी असंख्येय गुण वृद्धि से विशुद्ध। ज्ञानी अज्ञानी का अल्प बहुत्व ६. कोई आभिनिबोधिकज्ञानी अनंत गुण वृद्धि से विशुद्ध।' अनंत पर्यव का दूसरा विकल्प आभिनिबोधिकज्ञान का ज्ञेय अनंत है और वह प्रत्येक ज्ञेय के प्रति भिन्न होता है इसलिए उसके पर्यव अनंत हैं। अनंत पर्यव का तीसरा विकल्प-मतिज्ञान को अविभाग परिच्छेदों के द्वारा छिन्न करने पर उसके अनंत खण्ड हो जाते हैं। फलतः उसके अनंत पर्यव हैं। यह प्रतिपादन स्वपर्याय की अपेक्षा से है। वृत्तिकार ने पर पर्याय की अपेक्षा से भी अनंत पर्यवों का प्रतिपादन किया है। उसका आधार विशेषावश्यक भाष्य है। ज्ञानी- अज्ञानी और ज्ञान-अज्ञान के पर्यवों का अल्प बहत्व इस प्रकार है। देखें यंत्र ज्ञान-अज्ञान के पर्यवों का अल्प-बहुत्व सबसे अल्प उनसे अनंत गुण मनःपर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी मनःपर्यवज्ञान के पर्यव विभंगज्ञान के पर्यव सबसे अल्प मनःपर्यवज्ञानी से असंख्येय गुण अधिक परस्पर तुल्य किन्तु अवधि ज्ञानी से विशेषाधिक उनसे असंख्येयगुण अधिक उनसे अनंत गुण अवधिज्ञान के पर्यव आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी | विभंगज्ञानी केवल ज्ञानी उनसे अनंत गुण श्रुत अज्ञान के पर्यव श्रुतज्ञान के पर्यव मति अज्ञान के पर्यव मतिज्ञान के पर्यव केवलज्ञान के पर्यव उनसे अनंत गुण उनसे विशेषाधिक उनसे अनंत गुण उनसे विशेषाधिक उनसे अनंत गुण मति अज्ञानी श्रुत अज्ञानी परस्पर तुल्य किन्तु केवलज्ञानी से अनंत गुण अधिक २१५. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। २१५. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा १. भ. वृ.८/२०८1 २. वही, ८/२०८-तज्ज्ञेयस्यानन्तत्वात प्रतिशेयं च तस्य भिद्यमानत्वात् अथवा मतिज्ञानमविभागपरिच्छदैर्बुद्ध्या छिद्यमानमनंतखंडं भवतीत्येवमनन्ता स्तत्पर्यवाः। ३. वही, ८/२०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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