________________
३१०
भगवई
श. ९ : उ. ३३ : सू. २१२-२१४ मल्लालंकारं ओमुयइ॥
अवमुञ्चति।
जाकर स्वयं आभरण, माल्य और अलंकार उतारे।
२१३. तए णं सा जमालिस्स ततः सा जमालेः क्षत्रियकुमारस्य माता २१३. 'क्षत्रियकुमार जमालि की माता ने
खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्ख-णेणं हंसलक्षणेन पटशाटकेन आभरणमाल्या- हंसलक्षण युक्त पटशाटक में आभरण, पडसाडएणं आभरण-मल्लालंकारं लंकारं प्रतीच्छति, प्रतीष्य हार-वारि-धार- माल्य और अलंकार स्वीकार किए। पडिच्छइ, पडिच्छित्ता हार-वारिधार- सिन्दुवार . छिन्नमुक्तावलि - प्रकाशानि स्वीकार कर हार, जल-धारा, सिन्दुवार सिंदुवार - छिन्नमुत्तावलिप्पग्गासाइं अश्रूणि विनिर्मुञ्चती-विनिर्मुञ्चती जमालिं (निगुण्डी) के फूल और टूटी हुई मोतियों अंसूणि विणिम्मुयमाणी - विणिम्मुय- क्षत्रियकुमारम् एवमवादीत्-यतितव्यं जात! की लड़ी के समान बार-बार आंसू बहाती माणी जमालिं खत्तियकुमारं एवं घटितव्यं जात! पराक्रमितव्यं जात! अस्मिन् हुई इस प्रकार बोलीवयासी-जइयव्वं जाया! घडियव्वं च अर्थे नो प्रमत्तव्यम् इति कृत्वा जमालेः जात ! संयम में प्रयत्न करना। जाया! परक्कमियव्वं जाया! अस्सि क्षत्रियकुमारस्य अम्बा-पितरौ श्रमणं भगवंतं जात! संयम में चेष्टा करना। च णं अढे णो पमाएतव्वं ति कट्ट महावीरं वन्देते नमस्यतः वन्दित्वा जात! संयम में पराक्रम करना। जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मा- नमस्यित्वा यामेव दिशं प्रादुर्भूतौ तामेव दिशं जात! इस अर्थ में प्रमाद मत करना यह पियरो समणं भगवं महावीरं वंदंति प्रतिगतौ।
कहकर क्षत्रियकुमार जमालि के माता नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं
पिता ने श्रमण भगवान महावीर को वंदनपाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया।।
नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर जिस दिशा से आए थे उसी दिशा में लौट
गए।
भाष्य १.सूत्र २१३
हैं-यतना, घटना, पराक्रम और अप्रमाद। मां ने कहा-पुत्र ! प्राप्त १.समय में........प्रमाद मत करना (जइयव्वं...........णो
संयम योग में प्रयत्न करते रहना। अप्राप्त संयम योग की प्राप्ति के पमाएतव्वं।)
लिए घटना-चेष्टा करते रहना, पराक्रम करते रहना। लक्ष्य की माता ने क्षत्रियकुमार जमालि को शिक्षा दी। उसके चार सूत्र सिद्धि के लिए अप्रमत्त रहना।'
२१४. तए णं से जमाली खत्तिय-कुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः स्वमेव २१४. क्षत्रियकुमार जमालि ने स्वयं ही सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति, कृत्वा यत्रैव पंचमुष्टि लोच किया। लोच कर जहां जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव श्रमण भगवान महावीर है. वहां आया। उवागच्छइ, उवाग-च्छित्ता समणं उपागच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण- महावीरं त्रिःआदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर बंदनवंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते एवमवादीत्-आदीसः भदन्त! लोकः, नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर इस णं भंते! लोए, पलित्ते णं भंते! लोए, प्रदीप्तः भदन्त ! लोकः, आदीप्त प्रदीप्तः प्रकार बोला-भंते! यह लोक बुढ़ापे और आलित्तपलित्ते णं भंते! लोए जराए भदन्त ! लोकः जरया मरणेण च।
मौत से आदीप्त हो रहा है (जल रहा है)। मरणेण य।
अथ यथानामकः कोऽपि 'गाहावई अगारे भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से प्रदीप्त से जहानामए केइ गाहावई अगारंसि ध्मायमाने यः सः तत्र भाण्डः भवति हो रहा है (प्रज्वलित हो रहा है)। भंते! झियायमाणंसि जे से तत्थ भंडे भवइ अल्पभारः मूल्यगुरुकः, तं गृहीत्वा आत्मना यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्तअप्पभारे मोल्लगरुए, तं गहाय आयाए एकांतमंतम् अपक्रामति । एष मम प्रदीप्त हो रहा है। एगंतमंतं अवक्क-मइ। एस मे नित्थारिए निस्तारितः सन् पश्चात् पुरा च हिताय जैसे किसी गृहपति के घर में आग लग समाणे पच्छा पुरा य हियाए सुहाए । सुखाय क्षमाय निःश्रेयसे आनुगामिकत्वाय जाने पर वहां जो अल्प भार वाला और खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविष्यति। एवमेव देवानुप्रिय! ममापि बहुमूल्य आभरण होता है, उसे लेकर स्वयं भविस्सइ।
आत्मा एकः भाण्डः इष्ट: कांतः प्रियः एकांत स्थान में चला जाता है। (और १. भ. वृ. ९/२१९।- जइयव्वं ति प्राप्तेषु संयमयोगेषु प्रयत्नः कार्यः, 'जाया!" भावः, किमुक्तं भवति?-अस्सिं चेत्यादि, अस्मिंश्चार्थे-प्रव्रज्यानुपालनहे पुत्र! घडियव्वं ति अप्राप्तानां संयमयोगानां प्राप्तये घटना कार्या, लक्षणे न प्रमादयितव्यमिति। परिक्कमियव्वं ति पराक्रमः कार्यः पुरुषत्वाभिमानः सिद्धफलः कर्त्तव्य इति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org