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भगवई
श.९ : उ. ३३ : सू. २१४,२१५
एवामेव देवाणुप्पिया! मज्झ वि आया मनोज्ञः 'मणामे' स्थेयान् वैश्वासिकः सोचता है-) अग्नि से निकाला हुआ यह एगे भंडे इढे कंते पिए मणुण्णे मणामे सम्मतः बहुमतः अनुमतः भाण्डकरण्डक- आभरण पहले अथवा पीछे मेरे लिए हित, थेज्जे वेस्सासिए सम्मए बहमए अणुमए । समानः, मा शीतं, मा उष्णं, मा क्षुधा, मा सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता भंडकरंडगसमाणे, मा णं सीयं, मा णं । पिपासा, मा चौराः, मा व्यालाः, मा दंशाः, के लिए होगा। उण्ह, मा णं खुहा, मा णं पिवासा, मा णं मा मशकाः, मा वातिक-पैत्तिक-श्लैष्मिक- देवानुप्रिय! इसी प्रकार मेरा शरीर भी एक चोरा, मा णं वाला, मा णं दंसा, मा णं सान्निपातिकाः विविधाः रोगातंकाः उपकरण है। वह इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मसया, मा णं वाइय-पित्तिय सेभिय- परीषहोपसर्गाः स्पृशन्तु इति कृत्वा एष मम मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, सन्निवाइय विविहा रोगा-यंका निस्तारितः सन् परलोकस्य हिताय सुखाय बहुमत, अनुमत और आभरण-करण्डक के परीसहोवसग्गाफुसंतु त्ति कट्ट एस मे क्षमाय निःश्रेयसे आनुगामिकत्वाय समान है। इसे सर्दी-गर्मी न लगे, भूखनित्थारिए समाणे परलोयस्स हियाए भविष्यति।
प्यास न सताए, चोर पीड़ा न पहुंचाए, सुहाए खमाए नीसेसाए आणुगामियत्ताए तद् इच्छामि देवानुप्रिय! स्वयमेव प्रव्रजितं, हिंस पशु इस पर आक्रमण न करे, दंश भविस्सइ।
स्वयमेव मुण्डितं, स्वयमेव शिक्षापितं, और मशक इसे न काटे, वात, पित्त, श्लेष्म तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! सयमेव । स्वयमेव आचार-गोचरं, विनय-वैनयिक- और सन्निपात जनित विविध प्रकार के रोग पव्वावियं, सयमेव मुंडावियं, सय-मेव चरण-करण-यात्रा-मात्राप्रत्ययं धर्म- और आतंक तथा परीषह और उपसर्ग सेहावियं, सयमेव सिक्खावियं, सयमेव माख्यातम!।
इसका स्पर्श न करे, इस अभिसंधि से मैंने आयार-गोयरं विणय-वेणइय-चरण
इसे पाला है। मेरे द्वारा इसका निस्तार करण . जायामाया . वत्तियं धम्म
होने पर यह परलोक में मेरे लिए हित, माइक्खियं॥
सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा। इसलिए देवानुप्रिय! मैं आपके द्वारा प्रवजित होना चाहता हूं. मैं आपके द्वारा ही मुण्डित होना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शैक्ष बनना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूं तथा आपके द्वारा ही आचार, गोचर, विनय-वैनयिक, चरण-करण-यात्रा-मात्रा
मूलक धर्म का आख्यान चाहता हूं।
भाष्य २. सूत्र-२१४
शिष्य महावीर के पास मुण्डित हुए। उनके मंडन को महावीर की नापित द्वारा अग्रकेशों का कर्तन', जमालि द्वारा स्वयं सन्निधि में किया गया मुंडन कहा जा सकता है। पांच सौ का एक साथ पंचमुष्टिक लोच और महावीर द्वारा मुंडन-लोच के विषय में ये तीन . महावीर के द्वारा मुंडन करना संभव नहीं लगता। प्रकल्प मिलते हैं। उनमें सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। पंचमुष्टिक लोच एक शैलीगत वर्णन है। अग्रकेशों का कर्तन नापित ने अग्रकेशों का कर्तन किया। जो केश शेष बचे, उनका पहले हो चुका था इसलिए पंचमुष्टि लोच की संभावना कैसे हो (पंचमुष्टिक) लोच स्वयं जमालि ने किया। जमालि आदि पांच सौ सकती है?
२१५. तए णं समणे भगवं महावीरे ततः श्रमणः भगवान् महावीरः जमालिं जमालिं खत्तियकुमारं पंचहिं पुरिस- क्षत्रियकुमारं पञ्चभिः पुरुषशतैः सार्धं सएहिं सद्धिं सयमेव पव्वावेइ जाव स्वयमेव प्रव्राजयति, यावत् सामायिकादिसामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई कानि, एकादश अंगानि अधीते, अधीत्य अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ- बहुभिः चतुर्थ-षष्ठ-अष्टम-दशम-द्वादशैः छट्ठट्टम-दसम-दुवालसेहिं मासद्ध- मासार्द्धमासक्षपणैः विचित्रैः तपःकर्मभिः मासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं आत्मानं भावयन् विहरति। अप्पाणं भावमाणे विहरइ॥
२१५. श्रमण भगवान महावीर ने क्षत्रियकुमार
जमालि को पांच सौ पुरुषों के साथ स्वयं ही प्रव्रजित किया यावत् क्षत्रियकुमार जमालि ने सामायिक, आचारांग आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, अध्ययन कर अनेक चतुर्थ भक्त,षष्ठभक्त, अष्टम भक्त, दशम भक्त, द्वादश भक्त, अर्धमास और मासखमण-इस प्रकार विचित्र तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विहरण किया।
३.वही, ९४२१५।
१.भ.वृ.९/१८८ २. वही, ९/२१०
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