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________________ भगवई ३०९ अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव समणे पुरतः कृत्वा यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, तत्रैव उपागच्छतः. उपागम्य श्रमण उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिण- प्रदक्षिणां तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, कुरुतः, कृत्वा वन्देते, नमस्यतः, वन्दित्वा करेत्ता वंदति नमसंति, वंदित्ता नमस्यित्वा एवम् अवादिष्टाम् एवं खलु नसत्ता एवं वयासी एवं खलु भंते! भदन्त ! जमालिः क्षत्रियकुमारः आवयोः जमाली खत्तियकुमारे अम्हं एगे पुत्ते एकः पुत्रः इष्टः कान्तः प्रियः मनोज्ञः eg कंते पिए मणुणे मणामे थेज्जे 'मणामे' स्थैर्यः वैश्वासिकः सम्मतः बहुमतः वेसासिए संमए बहुमए अणुमए अनुमतः भाण्डकरण्डकसमानः रत्नः भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणन्भूए रत्नभूतः जीवितोत्सविकः हृदयाजीविऊसविए हिययनंदिजणणे उंबर- नन्दिजनकः उदुम्बर- पुष्पम् इव दुर्लभः पुप्फंपिव दुल्लभे सवणयाए, किमंग ! श्रवणे. 'किमङ्ग' पुनः दर्शने ? सः पुण पासणयाए ? से जहानामए उप्पले यथानामकः उत्पल इति वा, पद्म इति वा, इवा, पउमे इ वा जाव सहस्स पत्ते इ यावत् सहस्रपत्रम् इति वा, पङ्के जातः जले वा पंके जाए जले संबुडे नोवलिप्पति संवृतः नोपलिप्यते पङ्करजसा, नोपलिप्यते पंकरएणं, नोवलिप्पति जलरएणं, जलरजसा, एवमेव जमालिः क्षत्रियकुमारः एवामेव जमाली वि खत्तियकामरे कामेषु जातः, भोगेषु संवृद्धः नोपलिप्यते कामेहि जाए भोगेहिं संबुड्ढे कामरजसा, नोपलिप्यते भोगरजसा. नोवलिप्पति कामरएणं, नोवलि-प्पति नोपलिप्यते मित्र ज्ञाति-निजक स्वजनभोगरएणं, नोवलिप्पति मित्त-णाइ- संबंधिपरिजनेन । एषः देवानुप्रियाः ! णियग-सयण संबंधि- परिजणेणं । एस संसारभयोद्विग्नः भीतः जन्ममरणेण, इच्छति देवानुप्रियाणाम् अन्तिके मुण्डः भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजितुम् । तत् एनं देवानुप्रियेभ्यः ! आवां शिष्यभिक्षां दद्वः, प्रतीच्छन्तु देवानुप्रियाः ! शिष्यभिक्षाम् । देवाप्पिया! संसारभयुव्विग्गे भीए जम्मण-मरणेणं, इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वत्तए । तं एयं णं देवाणुप्पियाणं अम्हे सीसभिक्ख दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सीसभिक्खं ॥ २११. तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिं खत्तियकुमारं एवं वयासीअहाहं देवाप्पिया ! मा पडिबंधं ॥ २१२. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे समणेण भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे तु समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण -पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदs नमसs, वंदित्ता नमसित्ता उत्तर - पुरित्थिमं दिसिभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव आभरण Jain Education International ततः श्रमणः भगवान् महावीर : जमालिं क्षत्रियकुमारं एवमवादीत्-यथासुखं देवानुप्रियाः ! मा प्रतिबंधम् । ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः श्रमणेण भगवता महावीरेण एवम् उक्ते सति हृष्टतुष्टः श्रमण भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिण- प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् अपक्रामति, अपक्रम्य स्वयमेव आभरण माल्यालंकारम् For Private & Personal Use Only श. ९ : उ. ३३ : सू. २१०-२१२ आगे कर जहां श्रमण भगवान महावीर हैं. वहां आए। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार किया। वंदन नमस्कार कर इस प्रकार बोले- भंते! क्षत्रियकुमार जमालि हमारा एक पुत्र है, इष्ट कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत बहुमत, अनुमत और आभरणकरण्डक समान है। रत्न, रत्नभूत ( चिन्तामणि आदि रत्न के समान), जीवन उत्सव और हृदय को आनंदित करने वाला है। वह उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ है फिर दर्शन का तो कहना ही क्या ? जैसे उत्पन्न, पद्म यावत सहस्रपत्र- कमल पंक में उत्पन्न और जल में संवर्द्धित होता है किन्तु वह पंक-रज और जल - रज से उपलिप्त नहीं होता वैसे ही क्षत्रियकुमार जमालि कामों से उत्पन्न हुआ है, भोगों में संवर्द्धित हुआ है किन्तु वह काम - रज और भोग-रज से उपलिप्त नहीं है। मित्र ज्ञाति, निजक, स्वजनसंबंधी और परिजन से उपलिप्त नहीं है। देवानुप्रिय ! यह संसार भय से उद्विग्न है, जन्म-मरण से भीत है, देवानुप्रिय के पास मुण्ड होकर अगार से अनगारिता में प्रवर्जित होना चाहता है इसलिए हम इसे देवानुप्रिय को शिष्य की भिक्षा के रूप में देना चाहते हैं। देवानुप्रिय ! शिष्य की भिक्षा को स्वीकार करो। २११. श्रमण भगवान महावीर ने क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! जैसा सुख हो, प्रतिबंध मत करो। २१२. श्रमण भगवान महावीर के इस प्रकार कहने पर क्षत्रियकुमार जमालि हृष्ट-तुष्ट हो गया । श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार किया। वंदन नमस्कार कर उत्तर-पूर्व दिशा (ईशान कोण) में गया। www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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