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________________ ३-३० उद्देसो मूल हिन्दी छाया अन्तर्वीप पद ७. 'भगवान् राजगृह नगर में आए यावत् गौतम इस प्रकार बोले संस्कृत छाया अंतरदीव-पदं अन्तर्वीप-पदम् ७. रायगिहे जाव एवं बयासी-कहि णं राजगृहे यावत् एवम् अवादीत्-कुत्र भदन्त! भंते! दाहिणिल्लाणं एगूरुयमणुस्साणं दाक्षिणात्यानाम् एकोरुक मनुष्याणाम् एगूरुयदीवे नाम दीवे पण्णत्ते? एकोरुकद्वीपः नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पव्वयस्स दाहिणे णं चुल्लहिमवंतस्स दक्षिणे क्षुल्लहिमवतः वर्षधरपर्वतस्य वासहरपव्ययस्स पुरथिमिल्लाओ पौरस्त्स्य चरमान्तात् लवणसमुद्रम् चरिमंताओ लवणसमुई उत्तरपुरस्थिमे उत्तरपौरस्त्ये त्रीणि योजनशतानि अवगाह्य णं तिण्णि जोयण-सयाई ओगाहित्ता अत्र दाक्षिणात्यानाम् एकोरुकमनुष्याणाम् एत्थ णं दाहिणिल्लाणं एगूरुय- एकोरुकद्वीपः नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः-त्रीणि मणुस्साणं एगूरुयदीवे नाम दीवे योजनशतानि आयाम-विष्कम्भेण नव पण्णत्ते-तिण्णि जोयणसयाई आयाम- एकोनपञ्चाशत् योजनशते किंचित् विक्खंभेणं, नव एगूणवन्ने जोयणसए विशेषोने परिक्षेपेण सः एकया पद्मवर किंचि-विसेसूणे परिक्खेवेणं। से णं वेदिकया एकेन च वनषंडेन सर्वतः समन्तात् एगाए पउमवरवेड्याएएगेण य वणसंडेणं सम्परिक्षितः। द्वयोः प्रमाणं वर्णकः च । एवम् सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। दोण्ह वि एतेन क्रमेण एवं यथा जीवाभिगमे यावत् पमाणं वण्णओ य। एवं एएणं कमेणं एवं शुद्धदन्तद्वीपे यावत् देवलोकपरिग्रहाः ते जहा जीवाभिगमे जाव सुद्धदंतदीवे जाव मनुजाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! देवलोग-परिग्गहाणं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो! भंते ! दक्षिण दिशा में एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक द्वीप नामक द्वीप कहां प्रज्ञप्त है? गौतम! जम्बूद्वीप द्वीप में मंदर पर्वत के दक्षिण दिशा में क्षुल्लहिमवंत वर्षधर पर्वत के पूर्वी चरमान्त से लवणसमुद्र के उत्तरपूर्व में तीन सौ योजन का अवगाहन करने पर वहां दक्षिण दिशा वाले एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक नाम का द्वीप है। वह तीन सौ योजन लम्बा चौड़ा है। उसकी परिधि नौ सौ उनपचास योजन से कुछ विशेष न्यून है। वह एकोरुक द्वीप एक पद्मवर-वेदिका और एक वनषण्ड से चारों तरफ घिरा हुआ है। दोनों का प्रमाण और वर्णन। इस क्रम से इस प्रकार जीवाभिगम (३/२१७) की भांति वक्तव्यता यावत् शुद्धदंत द्वीप है और उन द्वीपों के वासी मनुष्य मृत्यु के पश्चात् देवलोक में उत्पन्न होते हैं आयुष्मान् श्रमण! इस प्रकार अट्ठाईस अंतर्वीप अपनी अपनी लम्बाई और चौड़ाई के साथ वक्तव्य हैं। इतना विशेष है कि प्रत्येक द्वीप का एक उद्देशक है। इस प्रकार अट्ठाईस उद्देशक हो जाते हैं। एवं अट्ठावीसंपि अंतरदीवा सएणं-सएणं एवम् अष्टविंशतिः अपि अन्तरद्वीपाः । आयामविक्खंभेणं भाणियव्वा, नवरं- स्वकेन-स्वकेन आयाम-विष्कम्भेण दीवे-दीवे उद्देसओ, एवं सव्वे वि। भणितव्याः , नवरं-द्वीपे-द्वीपे उद्देशकः, एवं अट्ठावीसं उद्देसगा। सर्वेऽपि अष्टाविंशतिः उद्देशकाः। भाष्य १.सूत्र-७ उत्तर दिशा में। प्रस्तुत उद्देशक समूह में अट्ठाईस दक्षिण दिशा के द्वीपों छप्पन अन्तर्वीप है-अट्ठाईस दक्षिण दिशा में और अट्ठाईस का निर्देश है। उत्तर दिशा के द्वीप समूह यहां विवक्षित नहीं है।' ८. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। ८. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही १. जीवा. ३/२१७ २.जीवा ३/२१७-२२६॥ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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