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एगतीसइमो उद्देसो : इकतीसवां उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी छाया
असोच्चा उवलद्धि-पद
अश्रुत्वा उपलब्धि-पदम् ९. रायगिहे जाव एवं वयासी-असोच्चा राजगृहे यावत् एवम् अवादीत्-अश्रुत्वा णं भंते! केवलिस्स वा, केवलि-साव- भदन्त! केवलिनः वा, केवलि-श्रावकस्य गस्स वा, केवलिसावियाए वा, वा, केवलि-श्राविकायाः वा केवलि- केवलिउवासगस्स वा, केवलि- उपासकस्य वा केवलि-उपासिकायाः वा, उवासियाए वा तप्पक्खियस्स वा, तत्पाक्षिकस्य वा, तत्पाक्षिक-श्रावकस्य वा, तप्पक्खियसावगस्स वा, तप्पक्खिय. तत्पाक्षिक-श्राविकायाः वा, तत्पाक्षिकसावियाए वा, तप्पक्खियउवासगस्स उपासकस्य वा तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा, तप्प-क्खियउवासियाए वा केवलि. वा, केवलिप्रज्ञप्तं धर्म लभेत श्रवणाय? पण्णत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए?
अश्रुत्वा उपलब्धि-पद ९. 'भगवान राजगृह नगर में आए, यावत्
गौतम इस प्रकार बोले-भंते! क्या कोई पुरुष केवली, केवली के श्रावक, केवली की श्राविका, केवली के उपासक, केवली की उपासिका, तत्पाक्षिक (स्वयंबुद्ध), तत्पाक्षिक के श्रावक, तत्पाक्षिक की श्राविका, तत्पाक्षिक के उपासक, तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवली प्रज्ञप्त धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है? गौतम! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवली प्रज्ञप्त धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है, कोई नहीं कर सकता।
गोयमा! असोच्चा णं केवलिस्स वा गौतम! अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् जाव तप्पक्खियउवासियाए वा तत्पाक्षिक उपासिकायाः वा, अस्त्येककः अत्थेगतिए केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज । केवलिप्रज्ञप्तं धर्म नो लभेत श्रवणाय, सवणयाए, अत्थेगतिए केवलिपण्णत्तं अस्त्येककः केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं लभेत धम्म नोलभेज्ज सवणयाए॥
श्रवणाय।
१०. से केगटेणं भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा १०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा असोच्चा णं जाव नो लभेज्ज यावत् नो लभेत श्रवणाय?
है-कोई पुरुष सुने बिना केवली प्रज्ञप्त सवणयाए?
धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और
कोई नहीं कर सकता? गोयमा! जस्स णं नाणावर-णिज्जाणं गौतम! यस्य ज्ञानावरणीयानां कर्मणां गौतम! जिसके ज्ञानावरणीय कर्म का कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं क्षयोपशमः कृतः भवति स अश्रुत्वा क्षयोपशम होता है, वह पुरुष केवली यावत् असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्प- केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक- तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना क्खियउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं । उपासिकायाः वा केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं लभेत।। केवली प्रज्ञप्त धर्म को प्राप्त कर सकता है। धम्मं लभेज्ज सवणयाए, जस्स णं यस्य ज्ञानावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः नो जिसके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओ-वसमे कृतः भवति स अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् नहीं होता, वह पुरुष केवली यावत् नो कडे भवइ से णं असोच्चा णं तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलिप्रज्ञप्त तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय- धर्म नो लभेत श्रवणाय। तत् तेनार्थेन गौतम! केवली प्रज्ञप्त धर्म का ज्ञान प्राप्त नहीं कर उवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं नो एवम् उच्यते अश्रुत्वा यावत् नो लभेत
सकता। लभेज्ज सवणयाए। से तेणटेणं गोयमा! श्रवणाय।
गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा एवं वुच्चइ-असोच्चा णं जाव नो लभेज्ज
है-कोई पुरुष सुने बिना केवली प्रज्ञप्त धर्म सवणयाए॥
का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं कर सकता।
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