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आमुख
प्रस्तुत शतक में भूगोल, खगोल, तत्त्वचचो अहिंसा दर्शन और जीवन-वृत्त इन सबका समाहार हुआ है।
जम्बूद्वीप के वर्णन का संबंध जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति नामक उपांग से है। चंद्र के वर्णन का संबंध जीवाभिगम उपांग से है। एकोसक आदि मनुष्यों का संबंध जीवाभिगम उपांग से है। यह समूचा प्रकरण प्रस्तुत आगम में प्रक्षिप्त प्रतीत होता है।
सूत्रांक ९ से ५१ तक असोच्चा केवली का वर्णन है। असोच्चा केवली का सिद्धांत आत्मा की आंतरिक पवित्रता और तज्जनित विकास पर आधारित है। इसे धर्म का सार्वभौम रूप अथवा असांप्रदायिक रूप कहा जा सकता है। भगवान् महावीर ने धर्म के क्षेत्र में आत्मा को केन्द्र में रखा। संप्रदाय, वेश आदि को परिधि में। संप्रदाय, धर्म की उपलब्धि में उपयोगी है। वह धर्म का उपादान नहीं है। उसका उपादान है आत्मा की विशुद्धि। एक पाठक असोच्चा केवली के प्रकरण को पढ़ता है तब उसके सामने कोई संप्रदाय नहीं होता, केवल आत्मा होती है। सांप्रदायिक विद्वेष या उन्माद को मिटाने का यह अपूर्व आलेख है। समाज और राजनीति से जुड़े हुए धर्म के प्रवचनों से इसका संबंध नहीं है, इसका संबंध विशुद्ध आध्यात्मिक चेतना से है।
सूत्रांक ५२ से ७५ तक 'सोच्चा' का प्रकरण है। किसी गुरु से धर्म की उपलब्धि होने के बाद जो आध्यात्मिक विकास करता है, वह 'श्रुत्वा' अतीन्द्रिय ज्ञानी है। अश्रुत्वा और श्रुत्वा दोनों की स्वीकृति धर्म के समग्र स्वरूप का एक सुंदर निदर्शन है।
प्रस्तुत आगम में पार्खापत्यिक अणगारों का अनेक बार उल्लेख हुआ है। पार्वापत्यिक अणगार स्थविरों के पास आता है उनसे सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक, व्युत्सर्ग आदि विषयों पर चर्चा करता है और अंत में संबुद्ध होकर महावीर के शासन में प्रव्रजित हो जाता है।
राजगृह में पार्खापत्यिक स्थविर भगवान महावीर के पास आते हैं, और रात-दिन के बारे में जिज्ञासा करते हैं अंत में महावीर के शासन में दीक्षित हो जाते है।
प्रस्तुत शतक में पाश्र्वापत्यिक गांगेय अणगार भगवान महावीर के पास आता है। उत्पत्ति, च्यवन और प्रवेशन के विषय में अनेक प्रश्न पूछता है। महावीर उनका उत्तर देते हैं। यह प्रश्नोत्तर 'गांगेय के भंग' इस दृष्टि से प्रसिद्ध है। गणित की दृष्टि से ये भंग बहुत महत्त्वपूर्ण है।
गांगेय अणगार ने एक प्रश्न पूछा, वह मन को चमत्कृत करने वाला है। प्रश्न था-भंते! उत्पत्ति, च्यवन और उद्वर्तन के बारे में आप जो जानते हैं, वह अपने ज्ञान से जानते हैं या किसी दुसरे से सुनकर जानते हैं ? यह प्रश्न पूरी परंपरा पर एक प्रश्नचिह्न उपस्थित करता है। यदि भगवान महावीर चौबीसवें तीर्थंकर थे तो क्या तेईस तीर्थंकर के शिष्य उनसे अनजान थे? यदि महावीर को वे तीर्थंकर की परंपरा में चौबीसवां तीर्थंकर मानते तो तीर्थंकर के विषय में ऐसा प्रश्न कैसे उपस्थित करते-भंते! उत्पत्ति, च्यवन और उद्वर्तन के बारे में आप जो जानते हैं, वह अपने ज्ञान से जानते हैं या किसी दूसरे से सुनकर जानते हैं?
___ यदि गांगेय अणगार को तीर्थंकर परंपरा की अवधारणा स्पष्ट होती तो ऐसा प्रश्न कभी नहीं होता। पार्श्व की परंपरा से महावीर के शासन में प्रवजित होने की घटना भी शासन-परंपरा की भिन्नता को सूचित करती है। भगवान पार्श्व की परंपरा के सभी श्रमण महावीर की परंपरा में दीक्षित नहीं हुए तुंगिया नगरी के श्रमणोपासकों के प्रश्नों का समाधान करने वाले पांच सौ अणगारों से परिवृत स्थविरों का भगवान महावीर के शासन में दीक्षित होने का कोई उल्लेख नहीं है। भगवान महावीर और भगवान पार्श्व के शासन की एकसूत्रता के आधार-बिन्दु ये हो सकते हैं
• भगवान महावीर के माता-पिता भगवान पार्श्व के अनुयायी थे। • भगवान महावीर के पार्श्व की परंपरा में प्रचलित ज्ञान-राशि (चौदहपूर्वो) को अपने शासन में स्थान दिया था।
यह अनुमान करना कठिन भी नहीं है और असंगत भी नहीं है कि भगवान पार्श्व का प्रभाव बहुत व्यापक था। उससे बुद्ध भी प्रभावित हुए। उनकी ज्ञान-राशि का भगवान बुद्ध ने उपयोग भी किया। भगवान महावीर ने जिस समग्रता से पार्श्व की परंपरा को स्थान दिया, उस समग्रता से भगवान बुद्ध ने नहीं दिया, भगवान महावीर के शासन से भगवान पार्श्व के शासन की एकात्मकता हुई। वह एकात्मकता भगवान बुद्ध के शासन से नहीं हो सकी। इसी एकात्मकता के आधार पर तीर्थंकरों की संख्या का संकलन किया गया प्रतीत होता है।
प्रस्तुत शतक में उत्पत्ति, च्यवन और प्रवेशन का लंबा प्रकरण है। ये सब स्वतः अपने-अपने कर्म से संचालित हैं, किसी ईश्वरीय शक्ति के द्वारा संचालित नहीं हैं। कोई शक्ति इनकी नियामक नहीं है। १. भ. ९/१।
५. भ.५/२५४-२५७। २. वही, ९/३.५
६. वही, ९/७८-१२० का भाष्य। ३. वही, ९/७।
७. वही, २/९५-११३। ४. वही, १/४२३-४३३।
८. वही, ९/१२५.१३२॥
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