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भगवई
गोयमा! से जहानामए छत्तेणं छत्ती, गौतम ! स यथानामकः छत्रेण छत्री, दण्डेन दंडेणं दंडी, घडेणं घडी, पडेणं पडी, करेणं दण्डी, घटेन घटी, पटेन पटी, करेण करी, करी, एवामेव गोयमा! जीवे वि एवमेव गौतम! जीवोऽपि श्रोत्रेन्द्रियसोइंदिय- चक्खिदिय-घाणिं दिय- चक्षुरिन्द्रिय - घ्राणेन्द्रिय - जिह्वेन्द्रियजिभिदिय-फासिंदियाई पडुच्च स्पर्शेन्द्रियाणि प्रतीत्य पुद्गली, जीवं प्रतीत्य । पोग्गली, जीवं पडुच्च पोग्गले। से। पुदलः। तत् तेनार्थेन गौतम ! एवम् उच्यतेतेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जीवे जीवः पुगली अपि, पुद्गलोऽपि। पाग्गली वि, पोग्गले वि।।
श.८ : उ. १० : सू. ५०१-५०४ गौतम ! जैसे छत्र के कारण छत्री, दण्ड के कारण दण्डी, घट के कारण घटी, पट के कारण पटी, कर के कारण करी कहलाता है, गौतम ! इसी प्रकार जीव भी श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय की अपेक्षा पुद्गली और अपने चैतन्यमय स्वरूप की अपेक्षा पुगल कहलाता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जीव पुद्गली भी है, पुद्गल भी है।
५०१. नेरइए णं भंते! किं पोग्गली! नैरयिकः भदन्त ! किं पुद्गली ? पुद्गलः ? ५०१. भंते! क्या नैरयिक पुद्गली है ? पुद्गल पोग्गले? एवं चेव। एवं जाव वेमाणिए, नवरं- एवं चैव। एवं यावत् वैमानिकः, नवरं यस्य । नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के सभी जस्स जइ इंदियाइं तस्स तइ यति इन्द्रियाणि तस्य तति भणितव्यानि। दण्डक जीव की भांति वक्तव्य हैं, इतना भाणियव्वाई॥
विशेष है-जिसके जितनी इन्द्रियां हैं, उसके उतनी इन्द्रियां वक्तव्य हैं।
५०२. भंते! क्या सिद्ध पुद्गली है ? पुद्गल है।
५०२. सिद्धे णं भंते! किं पोग्गली? सिद्धः भदन्त ! किं पुद्गली ? पुद्गलः? पोग्गले? गोयमा! नो पोग्गली, पोग्गले। गौतम ! नो पुद्गली, पुद्गलः।
गौतम ! पुद्गली नहीं है, पुद्गल है।
५०३. से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ-सिद्धे तत् केनार्थेन भदन्त ! एवम् उच्यते-सिद्धः ५०३. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा नो पोग्गली, पोग्गले? नो पुद्गली. पुद्गलः?
रहा है-सिद्ध पुद्गली नहीं है, पुद्गल है ? गोयमा! जीवं पडुच्च। से तेणद्वेणं गौतम ! जीवं प्रतीत्य। तत् तेनार्थेन गौतम ! गौतम! जीव की अपेक्षा से। गौतम ! इस गोयमा! एवं वुच्चइ-सिद्धे नो पोग्गली, एवम् उच्यते-सिद्धः नो पुदली, पुद्गलः। अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-सिद्ध पुद्गली पोग्गले॥
नहीं है, पुद्गल है।
भाष्य १. सूत्र ४९९-५०३
में आत्मा के अर्थ में इसका प्रयोग मिलता है।२ पुद्गल शब्द के अनेक अर्थ है। प्रस्तुत सूत्र में उसका प्रयोग मूर्त जीव अपने स्वरूप में पुद्गल है। पौद्गलिक इंद्रियों की अपेक्षा द्रव्य–परमाणु और परमाणु स्कंध तथा जीव के अर्थ में हुआ है। जीव के वह पुद्गली है। सिद्ध शरीर मुक्त हैं इसलिए वे पुद्गली नहीं हैं, केवल अर्थ में पुद्गल शब्द का प्रयोग वर्तमान में प्रचलित नहीं है। आगम पुगल हैं। साहित्य में केवल भगवती में ही इसका प्रयोग मिलता है। बौद्ध साहित्य ५०४. सेवं भंते! सेवं भंते! ति।। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। ५०४. भंते! वह ऐसा ही है, भंते! वह ऐसा
ही है।
१. आप्टे-पुद्गल-Beaulitul. Lovely, Handoome. 1. Atom पुद्गलाः परमाणवः Sridnara. 2. The Body Matter. 3. The Sou! 4. The Egoor Indiuidual. 5. The Man.
6. The Epithat of Siva. २. कथावस्थु पालि १/१/९४--
खंधेसु भिज्जमानेसु सो चे भिज्जति पुग्गलो। उच्छेदा भवति दिट्टि या बुद्धेन विवज्जिता॥ खंधेसु भिज्जमानेसु, नो चे भिज्जति पुग्गलो। पुग्गलो सस्सतो होति, नित्वानेन समसमोति॥
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