________________
श.८ : उ.६ : सू. २५६,२५७
भगवई उन सब विकल्पों में अतिचार विशुद्धि मान्य की गई है।
सकता है। अकृत्यस्थान की आलोचना न होने पर विशुद्धि कैसे हो द्रष्टव्य भगवई (खंड १, शतक १ सू. ११-१२ का भाष्य)। सकती है? इसका समाधान "क्रियमाण-कृत' के सिद्धांत द्वारा शब्द-विमर्श किया गया है। क्रिया काल और निष्ठा काल में अभेद होता है, तृणशूक-तृण का अग्रभाग। प्रतिक्षण कार्य की निष्पत्ति होती है। इस सिद्धांत के अनुसार तंत्रोद्गत-तांत, करघा, कपड़ा बुनने के यंत्र से निकला हुआ।' छिद्यमान को छिन्न, प्रक्षिप्यमान को प्रक्षिप्त और दह्यमान के दग्ध मञ्जिष्ठा राग-मजीठ का रंग। कहा जाता है, वैसे ही आराधना में प्रवृत्त को आराधक कहा जा जोति-जलण-पदं ज्योतिर्खलन-पदम्
ज्योति ज्वलन-पद २५६. पदीवस्स णं भंते! झियाय- प्रदीपस्य भदन्त ! ध्मायतः किं प्रदीपः २५६. 'भन्ते! प्रदीप जलता है उस समय माणस्स किं पदीवे झियाइ? लट्ठी ध्मायति? यष्टिः ध्मायति? वर्तिः ध्मायति? क्या प्रदीप जलता है? दीपयष्टि जलती झियाइ? वत्ती झियाइ? तेल्ले झियाइ? तैलं ध्मायति? दीपचम्पकं ध्मायति? है? बाती जलती है? तेल जलता है? दीवचंपए झियाइ? जोती झियाइ? ज्योतिः ध्मायति? ।
ढक्कन जलता है ? ज्योति जलती है? गोयमा! नो पदीवे झियाइ, नो लट्ठी गौतम! नो प्रदीपः ध्मायति, नो यष्टिः गौतम! न प्रदीप जलता है, न दीपयष्टि झियाइ, नो वत्ती झियाइ, नो तेल्ले ध्मायति, नो वर्तिः ध्मायति, नो तैलं जलती है, न बाती जलती है, न तेल झियाइ, नो दीवचंपए झियाइ, जोती ध्मायति, नो दीपचम्पकं ध्मायति, ज्योति जलता है, न ढक्कन जलता है, ज्योति झियाइ॥ धर्मायति।
जलती है।
२५७. अगारस्स णं भंते! झियाय- अगारस्य भदन्त ! ध्मायतः किम् अगारः माणस्स किं अगारे झियाइ? कुड्डा ध्मायति? कुड्यं ध्मायति ? 'कंडना' झियाइ? कडणा झियाइ? धारणा ध्मायति? धारणा ध्मायति? बलहरणं झियाइ? बलहरणे झियाइ? वंसा ध्मायति? वंश ध्मायति ? 'मल्ला' झियाइ? मल्ला झियाइ? वागा ध्मायति? बल्कं ध्मायति? छितरा झियाइ? छित्तरा झियाइ? छाणे ध्मायति? 'छाणे' ध्मायति? ज्योति झियाइ? जोती झियाइ?
धर्मायति?
२५७. भन्ते! घर जलता है उस समय क्या घर जलता है? भीत जलती है? टाटी जलती है? खंभा जलता है? खंभे के ऊपर का काठ जलता है ? बांस जलता है? भीत को टिकाने वाला खंभा जलता है? बलका जलती है? बांस की खपाचियां जलती हैं ? दर्भपटल जलता है? ज्योति जलती है? गौतम ! न घर जलता है, न भींत जलती है यावत् न दर्भपटल जलता है,ज्योति जलती
गोयमा !नो अगारे झियाइ, नो कुड्डा गौतम! नो अगारः ध्मायति, नो कुड्यं झियाइ, जाव नो छाणे झियाइ, जोती ध्मायति यावत् नो 'छाणे' ध्मायति. ज्योति झियाइ।
ध्यति।
भाष्य
सा
१. सूत्र २५६-२५७
इस आलापक का प्रतिपाद्य है-क्रिया की सापेक्षता। जलना अग्निकायिक जीवों की क्रिया है। वह क्रिया दीप, तैल, बाती आदि सापेक्ष है। मिट्टी का दीप पृथ्वीकायिक जीव का मुक्त शरीर है। तैल
और बाती वनस्पतिकायिक जीवों केमुक्त शरीर हैं। अग्नि की ज्वलन क्रिया पृथ्वीकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के मुक्त शरीरों की अपेक्षा रखती है। इस प्रकार क्रिया की सापेक्षता का संबोध दिया गया है।
जयाचार्य के अनुसार दीया जलता है, यह व्यवहार नय का
वचन है और अग्नि जलती है, यह निश्चय नय का वचन है।'
इसी प्रकार गृह के प्रसंग में भी निश्चय नय की वक्तव्यता है-घर नहीं जलता, ज्योति जलती है। इस प्रकरण के आधार पर क्रिया के सिद्धांत को समझाया गया है। शब्द विमर्श
दीवचंपय-दीये का ढक्कन। कडना-टाटी। धारण-खंभा। बलहरण-खंभे के ऊपर का काठ।
१. भ. वृ. ८/२५५-क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदेन प्रतिक्षणं कार्यस्य निष्पत्तः छिद्यमानं छिन्नमित्युच्यते एवमसावालोचनापरिणती सत्यामाराधनाप्रवृत्त आराधक एवेति। २. भ. वृ. ८.२५५-तन्त्रोद्गतं तूरिवेमादेरुत्तीर्णमात्रम्।
३. भ. जो.२/१४६/४-५
अथवा अग्नि बलै अछै? तब भाखै जिनराय दीवो न जले जाव तसु. बले ढाकणो नाय ।। तेऊ अग्नि बले अछ, ए निश्चय-नय वाय, अग्नि तणां प्रस्ताव थी बलि तेहिज कहिवाय।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org