________________
भगवई
पुण्णकलसभिंगार, दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा दंसण-रइय-आलोयदरिस - णिज्जा, वाउदय - विजयवेजयंती ऊसिया गगण- तलम णुलिहंती पुरओ अणुवी संपट्टिया । तदाणंतरं च णं वेरुलिय-भिसंतविमलदंड पलंबकोरंटमल्लदामोव-सोभियं चंदमंडलणिभं समूसियं विमलं आयवत्तं, पवरं सीहासणं वरमणिरयणपादपीढं सपाउया - जोयसमाउत्तं बहुकिंकर - कम्मकर पुरिस पायत्त परिक्खित्तं पुरओ अहाणुपुवीए संपट्ठियं । तदाणंतरं च णं बहवे लट्ठिग्गाहा कुंतग्गाहा चामरग्गाहा पासग्गाहा चावग्गाहा पोत्थयग्गाहा फलग-ग्गाहा पीढग्गाहा वीणग्गाहा कूवग्गाहा हडप्पग्गाहा पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्टिया ।
तदाणंतरं च णं बहवे दंडिणो मुंडिणो सिहंडिणो जडिणो पिंछिणो हासकरा डमरकरा - दवकरा चाडु करा कंदप्पिया कोक्कुइया किडु - करा य वायंता य गायंता य णच्चंता य हसंता य भासता य सासंताय सावेंता य रक्खता य आलोयं च करेमाणा जय-जय सद्दं पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुवीए संपट्टिया । तदाणंतरं च णं बहवे उग्गा भोगा खत्तिया इक्खागा नाया कोरव्वा जहा ओववाइए, जाव महापुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरओ य मग्गतो य पासओ अहाणुपुवीए संपट्टिया ॥
-
९. सूत्र - २०४ शब्द-विमर्श
-
Jain Education International
३०५
सचामरा दर्शनरचित-आलोक दर्शनीया, वातोद्धूता विजय वैजयन्ती च उच्छ्रिता गगनतलमनुलिखन्ती पुरतः आनुपूर्व्या सम्प्रस्थिताः । तदनन्तरं च वैडूर्य-भासमानविमलदंड प्रलम्ब कोरण्टमाल्यदामन्नुपशोभितं चन्द्रमण्डलनिभं समुच्छ्रितं विमलम् आतपत्रं, प्रवरं सिंहासनं वरमणिरत्नपादपीठं सपादुका 'जोय' समायुक्तं, बहुकिङ्कर - कर्मकर- 'पुरुषपादात परिक्षिमं पुरतः यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थितम् । तदनन्तरं च बहवः यष्टिग्राहाः कुन्तग्राहाः चामरग्राहाः पाशग्राहाः चापग्राहाः पुस्तकग्राहाः फलकग्राहाः पीठग्राहाः वीणाग्राहाः ‘कूव' ग्राहा: 'हडप्प' ग्राहाः पुरतः यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थिताः । तदनन्तरं च बहवः दण्डिनः मुण्डिनः शिखण्डिनः जटिन: पिच्छिनः हास्याकराः डमरकराः दवकराः चाटुकराः कन्दर्पिकाः कौकुच्यकाः क्रीडाकराः च वादयन्तः च गायन्तः च नृत्यन्तः च हसन्तः च भाषमानाः च शासन्तः च श्रावयन्तः च
रक्षन्तः च आलोकं च कुर्वाणाः जय-जय शब्द प्रयुञ्जानाः पुरतः यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थिताः । तदनन्तरं च बहवः उग्राः भोगाः क्षत्रियाः इक्ष्वाकाः नागाः कौरव्याः यथा औपपातिके यावत् महापुरुषवागुरापरिक्षिप्ताः जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पुरतः च मार्गतः च पार्श्वतः च यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थिताः ।
भाष्य
कूवगाहा - तैल आदि स्नेह-पात्र लिए हुए ।
हडप्प - सिक्कों का पात्र, सुपारी आदि रखने की पेटी ।' अभयदेव
१. भ. वृ. ९ २०४ हडप्पो दम्मादि भाजनं तांबूलार्थं पूगफलादि भाजनं वा ।
श. ९ : उ. ३३ : सू. २०४ दिव्य छत्र, पताका, चामर तथा जमालि के दृष्टिपथ में आए, उस प्रकार आलोक में दर्शनीय, वायु से प्रकंपित विजयवैजयंती ऊंची और तल का स्पर्श करती हुई आगे-आगे यथानुपूर्वी प्रस्थान कर रही थी ।
उसके पश्चात वैर्य से दीप्यमान विमल दंड वाला, लटकती हुई कटसरैया की माला और दाम से शोभित, चन्द्रमंडल की आभा वाला ऊंचा विमल छत्र तथा प्रवर मणिरत्न जटित पादपीठ और अपनी दोनों पादुकाओं से समायुक्त प्रवर सिंहासन, बहुत किंकर, कर्मकर, पुरुष पदाति से परिक्षिप्त होकर आगे-आगे यथानुपूर्वी प्रस्थान कर रहे थे।
For Private & Personal Use Only
उसके पश्चात् बहुत यष्टि, माला, चामर (बंधन-रज्जु अथवा चाबुक), धनुष्य, पुस्तक, फलक, पीठ, वीणा, स्नेह-पात्र और सिक्कों का पात्र लिए हुए आगे-आगे यथानुपूर्वी प्रस्थान कर रहे थे। उसके बाद बहुत दंडी, मुंडी, शिखंडी. जटी, पिच्छी, हास्यकर, शोर करने वाले, परिहास करने वाले, चाटुकर, काम प्रधान क्रीड़ा करने वाले, भांड, खेल तमाशा करने वाले-ये वाद्य बजाते हुए, गाते, हंसते, नाचते, बोलते, सिखाते और भविष्य में होने वाली घटना को सुनाते हुए, रक्षा करते हुए, पृष्ठगामी राजा की ओर निहारते हुए, 'जय जय' शब्द का प्रयोग करते हुए यथानुपूर्वी आगे-आगे प्रस्थान कर रहे थे।
उसके पश्चात् बहुत उग्र, भोज, क्षत्रिय, इक्ष्वाकु, नाग, कौरव, औपपातिक की भांति वक्तव्य है यावत् महान् पुरुष वर्ग से परिक्षिप्त क्षत्रियकुमार जमालि के आगे, पीछे और पार्श्व में यथानुपूर्वी प्रस्थान कर रहे थे।
सूरि ने ज्ञाता की वृत्ति में इसका अर्थ आभूषण का करण्डक किया है।" शिखंडी - शिखा धारण करने वाले ।
जटी- जटा धारण करने वाले।
पिच्छी - मयूर आदि की पिच्छी धारण करने वाले।
२. ज्ञाता वृ. ६३-हडपोत्ति आभरणकरण्डकं ।
www.jainelibrary.org