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श. ९ : उ. ३३ : सू. २०५-२०७ ३०६
भगवई डमरकर-शोर करने वाले।' ज्ञाता की वृत्ति में इसका अर्थ माध्यम है-प्रतीक। भाषा की विभिन्नता और सीमा को ध्यान में रखकर 'परस्पर कलाह करने वाले किया है।
कला के विशेषज्ञों ने प्रतीकों का विकास किया। वे प्रतीक नाना प्रकार दवकर-परिहास करने वाले।
के भावों, भावजन्य मुद्राओं और मांगलिक अवसरों को अभिव्यक्त चाटुकर-प्रिय बोलने वाले।
करते हैं। कंदप्पिया-कामप्रधान क्रीड़ा करने वाले।
आगम साहित्य में अष्ट मंगल का अनेक बार उल्लेख हुआ कोक्कुइया-भांड
है। मांगलिक द्रव्यों की सूची वैदिक और बौद्ध साहित्य में भी किडुकरा-खेल-तमाशा करने वाले
मिलती है किन्तु अष्ट मंगल की व्यवस्थित सूची केवल जैन आगमों सासंता-सिखाते हुए।
में ही मिलती है। सुश्रुत में शुभ अशुभ शकुनों की एक तालिका दी गई साता-भविष्य में होने वाली घटना सुनाते हुए। ज्ञाता की है। उसमें स्वस्तिक, मत्स्य आदि को शुभ शकुन माना गया है।' वृत्ति में इसका अर्थ आशीर्वचन सुनाते हुए' किया है।'
संभावना की जा सकती है कि शकुन शास्त्र में शुभ मानी जाने वाली अष्ट मंगल
वस्तुओं में से अष्ट मंगल का चयन किया गया है। विचारों के आदान-प्रदान का एक माध्यम है-भाषा। दूसरा
२०५. तए णं से जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पिता २०५. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने
कुमारस्स पिया पहाए कयबलि-कम्मे स्नातः कृतबलिकर्मा कृतकौतुकमंगल- स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक. कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते सव्वा प्रायश्चित्तः सर्वालङ्कारविभूषितः हस्ति- मंगल और प्रायश्चित्त किया। सर्व लंकारविभूसिए हत्थि-क्खंधवरगए स्कन्धवरगतः सकोरेण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण अलंकारों से विभूषित होकर हाथी के सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं ध्रियमाणेण श्वेतवरचामरैः उधूयमानैः- स्कंध पर आरूढ़ हुए। कटसरैया की धरिज्जमाणेणं सेयवर-चामराहिं उधूयमानैः हय-गज-रथ-प्रवरयोधकलि- माला, दाम तथा छत्र को धारण करते उद्धव्वमाणीहिं-उद्धव्व-माणीहिं हय तया चतुरंगिण्या सेनया सार्धं सम्परिवृतः हुए, प्रवर श्वेत चामरों का वीजन लेते गय - रह - पवर जो ह - क लियाए महत्भटचटकरवृन्दपरिक्षिसः जमालिं हुए, हय, गज, रथ और पदातिक-प्रवर चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे क्षत्रियकुमारं पृष्ठतः अनुगच्छति। यौद्धा से कलित चातुरंगिणी सेना महयाभड चडगर-विंदपरिक्खित्ते
संपरिवृत, महान् सुभटों के विस्तृत वृंद से जमालिं खत्तिय कुमारं पिट्ठओ
परिक्षिप्त होकर क्षत्रियकुमार जमालि के अणुगच्छइ॥
पृष्ठभाग में रहकर अनुगमन कर रहे थे।
२०६. तए णं तस्स जमालिस्स ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पुरतः २०६. उस क्षत्रिय कुमार जमालि के आगे खत्तियकुमारस्स पुरओ महं आसा महाश्वाः अश्ववराः उभतः पार्वं नागाः महान घोड़े और घुड़सवार, दोनों पार्श्व में आसवरा, उभओ पासिं नागा नागवरा, नागवराः पृष्ठतः रथाः, रथ- 'संगेल्ली'। हाथी और महावत, पीछे रथ और रथ पिट्ठओ रहा, रह-संगेल्ली॥
समूह चल रहे थे।
२०७. तए णं से जमाली खत्तिय-कुमारे
अब्भुग्गतभिंगारे, परिग्ग-हियतालियटे, ऊसवियसेतछत्ते, पवी-इयसेतचामरबालवीयणीए, सव्वि-ड्ढीए जाव दुंदुहिणिग्घोसणादि-तरवेणं खत्तियकुंडग्गामं नयरं मज्झं-मज्झेणं जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे, जेणेव बहुसालए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पाहारेत्थ गमणाए।
ततः सः जमाली क्षत्रियकुमारः अभ्युद्ग- २०७. क्षत्रियकुमार जमालि के आगे जल से तभृङ्गारः परिगृहीततालवृन्तः उच्छ्रितश्वेत- भरी झारी लिए हुए, तालवृंत लिए हुए, छत्रः प्रवीजितशेषचामर-बालवीजनिकः. श्वेत छत्र तानते हुए. श्वेत चामर और सर्वर्द्धया यावत् दुन्दुभिनिर्घोष-नादितरवेण बाल वीजनी को डुलाते हुए, सर्व ऋद्धि क्षत्रियकुण्डग्राम नगरं मध्यमध्येन यत्रैव यावत् दुन्दुभि के निर्घोष से नादित शब्द माहनकुण्डग्रामं नगरं यत्रैव बहुशालकं करते हुए क्षत्रियकुंडग्राम नगर के बीचोंचैत्यम्, यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः बीच जहां ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर है, जहां तत्रैव प्रधारयेत् गमनाय।
बहुशालक चैत्य है, जहां श्रमण भगवान महावीर हैं वहां जाने के लिए उद्यत हुए।
१. भ. वृ.../२०४-डमरकरा-विड्वकारिणः। २. ज्ञाता वृ. ६३. डमरकराः परस्परेण कलहं विधायकाः। ३. भ. वृ.९/२०४।-साज्ञिता य शिक्षयंतः। ४. वही, १/२०४।- साविता य इदं चेदं भविष्यतीत्येवं भूतवासि श्रावयंतः।
५. ज्ञाता वृ. प. ६३-साविता य श्रावयंत आशीर्वचनानि। ६. (क) ओवा. सू. ६४।
(ख) राय. सू. २१, २९१ । सुश्रुत संहिता, सूत्रस्थानम् अध्याय २१, श्लोक २७-४०
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