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________________ श.९: उ.३३ : सू. २००-२०४ ३०४ भगवई सहावेंति॥ और कमरबंध धारण किए हुए एक हजार प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। २०१. तए णं ते कोडुबियवरत-रुणपुरिसा ततः ते कौटुम्बिकवरतरुणपुरुषाः जमालेः २०१. वे प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुष जमालिस्स खत्तिय कुमारस्स पिउणा क्षत्रियकुमारस्य पित्रा कौटुम्बिकपुरुषैः क्षत्रियकुमार जमालि के पिता के कोडुबिय-पुरिसेहिं सहाविया समाणा शब्दायिताः सन्तः हृष्टतुष्टाः स्नाताः निर्देशानुसार कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा हट्ठतुट्ठा बहाया कयबलिकम्मा कयको. कृतबलिकर्माणः कृतकौतुक-मंगल-प्राय- बुलाये जाने पर हृष्ट-तुष्ट हो गए। उय-मंगल-पायच्छित्ता एगाभरण- श्चित्ताः एकाभरणवसनगृहीतनिर्योगाः उन्होंने स्नान और बलिकर्म किया, वसणगहियनिज्जोया जेणेव जमा- यत्रैव जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पिता तत्रैव कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया। लिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उपागच्छन्ति, उपागम्य करतलपरिगृहीतं एक जैसे आभरण, वेश और कमरबंध उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल- दशनखं शिरसावर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा धारण कर जहां क्षत्रियकुमार जमालि के परिग्गहियं दसनहं सिर-सावत्तं मत्थए जयेन विजयेन वर्धापयन्ति, वर्धापयित्वा पिता हैं, वहां आए, आकर दोनों हथेलियों अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं वदावेंति, एवमवादीत्-संदिशन्तु देवानुप्रियाः! यत् से निष्पन्न संपुट आकार वाली दसवद्धावेत्ता एवं वयासी-संदिसंतु णं अस्माभिः करणीयम्। नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख देवाणुप्पिया! जं अम्हेहिं करणिज्जं॥ घुमाकर 'जय हो-विजय हो' के द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर इस प्रकार बोले-देवानुप्रिय! हमें जो करणीय है, उसका संदेश दें। २०२. तए णं से जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पिता तं कुमारस्स पिया तं कोडुंबिय-वरतरुण- कौटुम्बिकवरतरुणसहस्रं एवमवादीत-यूयं सहस्सं एवं वयासी-तुब्भे णं देवानुप्रियाः! स्नाताः कृतबलिकर्माणः कृतदेवाणुप्पिया! ण्हाया कयबलि-कम्मा कौतुकमंगल-प्रायश्चित्ताः, एकाभरणकयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता एगा- वसन-गृहीतनिर्योगाः जमालेः क्षत्रियभरण - वसण - गहिय - निज्जोया कुमारस्य शिबिकां परिवहत। जमालिस्स खत्तिय-कुमारस्स सीयं परिवहेह॥ २०२. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने उन एक हजार प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुषों से इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो! तुम स्नान और बलिकर्म कर, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त कर, एक जैसे आभरण, वेश और कमरबंध धारण कर क्षत्रियकुमार जमालि की शिविका को वहन करो। २०३. तए णं ते कोडुबियवरतरुणपुरिसा ततः ते कौटम्बिकवरतरुणपुरुषाः जमालेः २०३. एक हजार प्रवर तरुण कौटुम्बिक जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा क्षत्रियकुमारस्य पित्रा एवम् उक्ताः सन्तः पुरुषों ने क्षत्रियकुमार जमालि के पिता के एवं वुत्ता समाणा जाव पडिसुणेत्ता यावत् प्रतिश्रुत्य स्नाताः यावत् एकाभरण- इस प्रकार कहने पर यावत् विनयपूर्वक ण्हाया जाव एगाभरणवसणगहिय- वसनगृहीतनिर्योगाः जमालेः क्षत्रिय- वचन को स्वीकार कर स्नान किया यावत् निज्जोगा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स कुमारस्य शिबिकां परिवहन्ति। एक जैसे आभरण, वेश और कमरबंध सीयं परिवहंति॥ धारण कर क्षत्रियकुमार जमालि की शिविका को वहन किया। २०४. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य २०४. 'हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने कुमारस्स पुरिससहस्स-बाहिणिं सीयं पुरुषसहसवाहिनीं शिबिकाम् आरूढस्य वाली शिविका पर आरूढ़ क्षत्रियकुमार दुरुढस्स समाणस्स तप्पढमायाए इमे ___ सतः तत्प्रथमतया इमे अष्टाष्टमंगलकाः जमालि के आगे-आगे सबसे पहले ये अट्ठमंगलगा पुरओ आहाणुपुव्वीए पुरतः यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थिताः तद्यथा- आठ-आठ मंगल प्रस्थान कर रहे थे, संपट्ठिया, तं जहा-सोत्थिय-सिरिवच्छ- स्वस्तिक-श्रीवत्स-नन्द्यावर्त-वर्द्धमानक- जैसे-स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंद्यावर्त्त, णंदिया - वत्त - बद्धमाणग - भद्दासण- कलश-मत्स्य-दर्पणाः। तदनन्तरं च। वर्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य और कलस-मच्छदप्पणा। तदाणंतरं च णं पूर्णकलशभृङ्गारं, दिव्या च छत्रपताका दर्पण। उसके बाद पूर्ण कलश, झारी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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