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श. ८ : उ. ८ : सू. ३१४
दृष्टियों से किया गया है। ऐर्यापथिक कर्माणुओं का ग्रहण अनेक भवों में होता है, वह भवाकर्ष है।
ऐर्यापथिक कर्माणुओं का ग्रहण वर्तमान भव में होता है, वह ग्रहणाकर्ष है । इन दोनों के आठ-आठ भंग बतलाए गए हैं। प्रथम भंग बंधी, बंधई, बंधिस्सइ का है वृत्तिकार ने बंधिस्स का अर्थ अनागत काल में बांधेगा, ऐसा किया है। जयाचार्य ने अनागत शब्द पर विस्तार से विमर्श किया है। उनके अनुसार अनागत का तात्पर्य भविष्य काल है, अग्रिम जन्म नहीं है। इसका हेतु यह है-उपशम श्रेणी दो जन्म में ही प्राप्त होती है। उत्कर्षतः एक जन्म में दो बार और दूसरे जन्म में दो बार। इसके समर्थन में भगवती (२५/५३२) १. वही ८/३०६ - पूर्वभव उपशांतमोहत्वे सत्येयोपथिकं कर्म बद्धवान् वर्तमानमव चोपशांत मोहत्वे बध्नाति अनागते चोपशांतमोहावस्थायां 'भन्त्स्यतीति ।
२. भ. २५/७ ५३२ - सुहुमसंपरागस्स जहणणेणं दाण्णि उक्कोसेणं नव । ३. भ. जी. २ १५० का वार्तिक पृ. ४४६ ४४७ - इहां वृत्ति में को- पूर्व भवे ग्यारमें गुणठाणे बांध्या, वर्तमान भव में पिण ग्यारमें गुणठाणे बांधे, वलि अनागत पिण स्यारमें गुणठाणे बांधसी। इहा अनागत शब्द में अनागत काल लेवे जद तो कोई अटकाव नहीं। जिम तिण भव में उपशमश्रेणी लेई बलि तिणहिज भव में अनागत काले उपशमश्रेणी लहीने इरियावहि बांधे। पर अनागत शब्दे अनागत भव लैवे तो बात मिलै नहीं। कारण उपशमश्रेणी तीन भव में आवे नहीं । जिम भगवती शतक २५ उद्देशक ७ में इम कह्यो सूक्ष्म सम्पराय चारित्र उत्कृष्ट नो बार आवै, ते पिण उत्कृष्टो तीन भव में आवै। बे भव में तो उपशमश्रेणी थी आठ बार अनै तीजै भव में खपकश्रेणी थी एक बार इण न्याय उपशमश्रेणी तीन भव में आवै नहीं।
४. भ. २५ / ४२२ - नियंटस्स णं पुच्छा।
गोयमा! जहणेणं दोण्णि उक्कोसेणं पंच।
५. भ. वृ. २५-निर्ग्रथस्योत्कर्षनस्त्रीणि भवग्रहणान्युक्तानि एकत्र च भवे छावाकर्षावित्येवमेकत्र द्वावन्यत्र च द्वावपरत्र चैकं क्षपकनिर्गंथत्वाकर्षं कृत्वा सिद्ध्यतीति कृत्वाच्यते पञ्चेति ।
६. वही. ८/३०६--षष्ठस्तु नास्त्येव तत्र न बद्धवान् बध्नातीत्यनयोरुपपद्यमानत्वेऽपि न भन्यतीति इत्यस्यानुपपद्यमानत्वात् तथाहि आयुषः पूर्वभागे उपशांतमहत्वादि न लब्धमिति न बन्द्रवान् तल्लाभसमये च बध्नाति ततोऽनन्तरसमयेषु च भन्त्स्यत्येव न तु न भन्त्स्यति, समयमात्रस्य बंधस्वभावात् यस्तु मोहोपशम-निर्ग्रन्थस्य समयानन्तरमरणेनैर्यापथिककर्मबंध: समयमात्रो भवति नासी षष्ठविकल्पहेतुः तदनन्तरैर्यापथिककर्म्मबंधाभावस्य भवान्तरवर्तित्वाद ग्रहणाकर्षस्य चेह प्रक्रांतत्वात्, यदि पुनः सयोगिचरमसमये बध्नाति ततोनन्तरं न मन्त्स्यतीति विवक्ष्येत तदा यत्सयोगि चरमसमये बध्नातीति बंधपूर्वकमेव स्यान्नाबंधपूर्वकं, तत्पूर्वसमये तस्य बंधकत्वात् एवं च द्वितीय एवं भंगः स्यान्न पुनः षष्ठ इति ।
७. भ. जी. २/१५० १४१ से १५५ से पहले तक दोनों वार्तिक ।
नहिं बांधियो बांधे अछे, नहिं बांधस्यै इक भव मही । ए भंग छट्टो शून्य से इह रीत कोई है नहीं । नहिं बांधियो बांधे अछे ए दोय ऊपजता छता। नहिं बांधस्यै ए बोल तीजो, तिणज भव नहिं सर्वथा ॥ तसु न्याय कहिये आउखा नैं, पूर्व भाग विषे रही। उपशांत- मोहादिक न लाधूं, ते भणी बांध्यो नहीं ॥ ते वीतराग धुर समय में, बांधे अछे इरियावही । तसु समय बीजे बांधस्यै इज वीतराग गुणे रही ॥
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भगवई
का पाठ प्रस्तुत किया है-सूक्ष्म संपराय चारित्र उत्कर्षतः नौ बार प्राप्त होता है। वह तीन भव में ही सम्पन्न होता है। दो भव में उपशम श्रेणी के आरोहण-अवरोहण के आधार पर आठ बार और तीसरे भव में क्षपक श्रेणी के आधार पर एक बार इसका निष्कर्ष है कि उपशम श्रेणी तीन भव में प्राप्त नहीं होती । *
निग्रंथ के आकर्ष से भी जयाचार्य द्वारा प्रतिपादित तथ्य की पुष्टि होती है। अभयदेव सूरि ने भी प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में इस विषय का स्पष्ट निर्देश किया है।"
ग्रहणाकर्ष का छठा भंग शून्य होता है। अभयदेव सूरि ने शून्यता का हेतु स्पष्ट किया है। जयाचार्य ने उस पर विस्तृत वार्तिक लिखा है । " आयुष्य के पूर्वभाग में उपशांत मोह अवस्था प्राप्त नहीं हुई, इस
पण बांधस्यै नहिं इम न होवे, समय मात्र इरियावही ।
तसु बंधनोज अभाव छे, ते भणी बंध ह्रस्यै सही ॥
न बांध्यो, बांधे, न बांधसी ए छठो भांगो शून्य छे, ते किम ? छठे भांगे कोई एक जीव नहीं । ते छठा भांगा नै विषे न बांध्यू, बांधे छे-ए दोई उपजता थकां पिण 'न बांधस्यै' ए तीजे बोल न ऊपजे तो देखाड़े ले-आउखां नां पूर्वभाग ने विषे उपशम-मोहत्वादि न लाधूं, एतला नाटे न बांध्यूं ने लाभ समय नै विषै बांधस्यैज पिण इम नहीं जे न बांधस्यै समय मात्र नां बंध नो इहां अभाव छे ते मांटे।
ग्यारमें गुणठाण में इक समय रहि मरणे करी । सुर भवे इरियावहि न बंधे, समय बंध इम उच्चरी ॥ इम कहे नेहनों एह उत्तर. वे भवे ए आखियो । पिण ग्रहण आकर्षे भवे इक, भंग ए नहिं भाखियां ॥ नहि बांधियो बांधे अछे, नहिं बांधस्य इरियावहि । इक भवे बोलज बे हुवै, पिण तृतीय बोल हुवै नहीं ॥ ते भणी भांगो एह छट्टो, ग्रहण आकर्षे नहीं ।
ते कारणे ए भंग नीं छै, शून्यता इक भव मही ॥ नाहि बांधियो बांधे अछे ए बोल बे नर भव मही । मरि सुर भवे नहिं बांधस्यै, ए ग्रहण आकर्षे नहीं ॥ ते भणी ग्रहणाकर्ष ते भव, एक आश्री जाणियै ।
ए भंग छठा तणी शून्यता, प्रवर न्याय पिछाणियै ।। जो तेरमा नै चरम समय, बंधै अछे इरियावही । फुन समय बीजे बांधस्यै नहिं तास बांछा जो हुई || इम तदा जे गुण तेरमां नैं चरम समये बंध ही । तेह कीजे पूर्व समये बांधियो इम संध ही ॥ ते भणी ए भंग द्वितीय है. पिण भंग छट्टो है नहीं। इम भंग षष्ठम शून्यता ए. ग्रहण आकर्षे कही ।। बांध्यो अने तेरमा गुण
इम तदा जे गुण तेरमा चरम समये बंध हो । तेह थी जे पूर्व बांधियो इम संध ही ॥
भणी ए भंग द्वितीय हैं. पिण भंग छट्टो है नहीं । इम भंग षष्टम शून्यता ए, ग्रहण आकर्ष कही ॥
कोई कहे - अतीतकाले इरियावहि सकषाइपण न बांध्यो अने तेरमा गुणठाणा रैछेह समये बांधै छे अने अजोगीपण न बांधस्यै, इम छट्टो भांगो किम न हुवे ? तेहनो उत्तर-इम दूजो हुवे, पिण छट्टो न हवे ते किम ? जिवारे संयोगी चरम समये बांधे, ते चरिम समय थकी पूर्व समये इरियावहि नो बंध कहीजे, पण पूर्व समये अबंधक नहीं। इम दूजो भांगो हीज हुवे. पिण छड़ो नहीं। नहिं बांधियो फुन नथी बांधे, बांधस्यै इरियावही । शिवगमन योग्यज भाव छै, ते आश्रयी सप्तम सही ॥
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