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भगवई
भगवान् महावीर (ईस्वी पूर्व ५९९-५२७) की वाणी द्वादशांगी में संकलित है। उस द्वादशांगी के पांचवें अंग का नाम है-विआहपण्णत्ती जो 'भगवती सूत्र' के नाम से सुप्रसिद्ध है। जैन साहित्य में तत्त्वज्ञान की दृष्टि से भगवती को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है। इसमें दर्शनशास्त्र, आचारशास्त्र, जीवविद्या, लोक-विद्या, सृष्टिविद्या, परामनोविज्ञान आदि अनेक विषयों का समावेश है। प्रस्तुत खंड में चार शतकों (८ से ११) के मूलपाठ, संस्कृत छाया तथा हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन विस्तृत भाष्य के साथ हुआ है। साथ में अभयदेवसूरि-कृत वृत्ति भी प्रकाशित है। आठवां शतक सृष्टिवाद, ज्ञान, परामनो-विज्ञान और कर्मवाद आदि अनेक सिद्धांतों का सूत्रात्मक शैली में लिखा हुआ महाभाष्य है। नौवां शतक में भूगोल, खगोल, तत्त्वचर्चा अहिंसा दर्शन और जीवन-वृत्त इन सबका समाहार हुआ है। दसवां शतक में दिशा, शरीर, ईर्यापथिकी क्रिया, अट्ठाईस द्वीप, देवों के शिष्टाचार के अतिरिक्त त्रायस्त्रिंश देवों की उत्पत्ति का वर्णन बहुत ही रसप्रद और मननीय है। ग्यारहवां शतक के प्रथम आठ उद्देशक वनस्पति से संबद्ध हैं। इस शतक में शिव राजर्षि के विभंगज्ञान का उल्लेख, सात द्वीप और सात समुद्र की स्थापना और उसका प्रतिवाद एक रोचक घटना है। सुदर्शन श्रेष्ठी के प्रश्न और भगवान महावीर के द्वारा उनका समाधान एक नई शैली में प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुत ग्रंथ को समग्र दृष्टि से भारतीय दार्शनिक वाङ्मय का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ कहा जा सकता है।
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