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अट्ठमो उद्देसो : आठवां उद्देशक
मूल
५५. नलिणे णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अणेगजीवे? एवं चेव निरवसेसं जाव अणंत-खुत्तो॥
संस्कृत छाया नलिनं भदन्त ! एकपत्रकं किम् एकजीवः ? अनेकजीवः? एवं चैव निरवशेषं यावत् अनन्तकृत्वः।
हिन्दी अनुवाद ५५. भंते ! एकपत्रक नलिन क्या एक जीव वाला है? अनेक जीव वाला है? इस प्रकार पूर्ववत् सम्पूर्ण रूप से वक्तव्य है यावत् अनन्त बार उपपन्न हुए हैं।
भाष्य
१सूत्र ४२-५५
वनस्पति के इन आठ पदों से कुछ रहस्यपूर्ण तथ्य सामने आते हैं। इनमें पांच पद प्रशस्त हैं-उत्पल, शालु, पद्म, कर्णिका, नलिन।। इसीलिए इनमें देव देवलोक से च्युत होकर जन्म ले सकते हैं। पलाश, कुंभी, नाडीक-ये तीन अप्रशस्त हैं इसलिए इनमें किसी देव की उत्पत्ति
नहीं होती। प्रशस्त पदों में देव का उपपात होता है इसलिए उनमें तेजोलेश्या बतलाई गई है। शेष तीन पदों में देवों की उत्पत्ति नहीं होती इसलिए उनमें तीन अप्रशस्त लेश्याएं होती है, तेजोलेश्या नहीं होती। द्रष्टव्य यंत्र
अवगाहना
उपपात
लेश्या
स्थिति
कुंभी
शालू जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी, |
उत्पलवत् उत्पलवत्
उत्पलवत् उत्कृष्टतः पृथक्त्व धनुष पलाश जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी, | देवों से उपपन्न नहीं | कृष्ण लेश्या नील | उत्पलवत् | उत्कृष्टतः पृथकत्व गव्युत
होते
लेश्या कापोत लेश्या पलाशवत्
पलाशवत् पलाशवत् | जघन्यतः अंतर्मुहूर्त
उत्कृष्टतः पृथक्त्व वर्ष नाड़ीक कुंभीवत्
कुंभीवत् कुंभीवत्
कुंभीवत् पद्म कर्णिका, उत्पलवत्
उत्पलवत् उत्पलवत्
उत्पलवत् नलिन
५६.सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति।
५६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही
१. भ. वृ. ११/४२-५५-उत्पलोद्देशके हि देवेभ्य उद्वृत्ता उत्पले उत्पद्यन्त
इत्युक्तमिह तु पलाशे नोत्पद्यन्त इति वाच्यम्, अप्रशस्तत्वात्तस्य, यतस्ते प्रशस्तेष्वेवोत्पलादि वनस्पतिषूत्पद्यन्त इति।.............यदा किल
तेजोलेश्यायुतो देवो देवभवादुद्धृत्य वनस्पतिषूत्पद्यते तदा तेषु तेजोलेश्या लभ्यते, न च पलाशे देवत्वोद्वृत्त उत्पद्यते पूर्वोक्तयुक्तेः एवं चेह तेजोलेश्या न संभवति, तदाभावादाद्या एव तिस्रो लेश्या इह भवन्ति।
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