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भगवई
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श. ११: उ.१०: सू.११२-११४
छविच्छेदं वा करेइ?
छविच्छेदं वा करोति? नो इणद्वे समढे।
नो अयमर्थः समर्थः। ताओ वा दिट्ठीओ अण्णमण्णाए दिट्ठीए ताः दृष्टयः अन्योन्यस्याः दृष्ट्याः किंचित् किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएंति? आबाधां वा व्याबाधां वा उत्पादयन्ति? छविच्छेदं वा करेंति?
छविच्छेदं वा कुर्वन्ति? नो इणद्वे समठे। से तेणटेणं गोयमा! एवं नो अयमर्थः समर्थः। तत् तेनार्थेन गौतम ! वुच्चइ-लोगस्स णं एगम्मि एवमुच्यते-लोकस्य एकस्मिन् आकाशआगासपदेसे जे एंगिदियपदेसा जाव प्रदेशे ये एकेन्द्रियप्रदेशाः यावत् अन्योन्यअण्णमण्णघडत्ताए चिट्ठति, नत्थि णं घटतया तिष्ठन्ति, नास्ति अन्योन्यस्य अण्णमण्णस्स आबाहं वा वाबाहं वा आबाधां वा व्याबार्धा वा उत्पादयन्ति। उप्पायंति? छविच्छेदं वा करेंति॥ छविच्छेदं वा कुर्वन्ति।
छविच्छेद करती है? यह अर्थ संगत नहीं है। वे दृष्टियां परस्पर-एक दूसरे की दृष्टि में किञ्चित आबाध अथवा व्याबाध उत्पन्न करती हैं ? छविच्छेद करती हैं ? यह अर्थ संगत नहीं है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-लोक के एक आकाश-प्रदेश में जो एकेन्द्रिय-प्रदेश हैं यावत् अन्योन्य एकीभूत बने हुए हैं, वे परस्पर आबाध अथवा व्याबाध उत्पन्न नहीं करते, छविच्छेद नहीं करते।
११३. लोगस्स णं भंते! एगम्मि लोकस्य भदन्त ! एकस्मिन् आकाशप्रदेशे ११३. 'भंते! लोक के एक आकाश-प्रदेश में
आगासपदेसे जहण्णपए जीवपदे-साणं, जघन्यपदे जीवप्रदेशानाम, उत्कर्षपदे जघन्य पद में अवस्थित जीव-प्रदेश, उक्कोसपए जीवपदेसाणं- सव्वजीवाण । जीवप्रदेशानां सर्वजीवानां च कतरे उत्कृष्ट पद में अवस्थित जीव-प्रदेश और य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहया कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहकाः वा ? तुल्याः सर्व जीव-इनमें कौन किससे अल्प, वा? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? वा? विशेषाधिकाः वा?
बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है? गोयमा! सव्वत्थोवा लोगस्स एगम्मि। गौतम! सर्वस्तोकाः लोकस्य एकस्मिन् गौतम ! सबसे अल्प लोक के एक आकाश आगासपदेसे जहण्णपए जीवपदेसा, आकाशप्रदेशे जघन्यपदे जीवप्रदेशाः, प्रदेश में जघन्य पद में अवस्थित जीवसव्वजीवा असंखेज्जगुणा, उक्कोसपए। सर्वजीवाः असंख्येयगुणाः, उत्कर्षपदे प्रदेश सबसे अल्प है, सर्व जीव उनसे जीवपदेसा विसेसाहिया। जीवप्रदेशाः: विशेषाधिकाः।
असंख्येय गुण है, उत्कृष्ट पद में अवस्थित जीव-प्रदेश उनसे विशेषाधिक है।
भाष्य
अवस्थित उनके जीव प्रदेश सबसे अल्प हैं। सब जीव उनसे असंख्येय गुण अधिक हैं। उत्कृष्ट पद में अवस्थित जीव प्रदेश उनसे विशेषाधिक
१.सूत्र ११३
आकाश के तेरह प्रदेशों में दश दिशाओं का स्पर्श करने वाले तेरह प्रदेशों वाले तेरह द्रव्य स्थित हैं। प्रत्येक आकाश प्रदेश में उनके तेरह तेरह प्रदेश होते हैं। इस प्रकार लोकाकाश में अनंत जीवों का अवगाहन है। इसलिए एक-एक आकाश प्रदेश में अनंत जीव प्रदेश होते हैं।
लोक के सूक्ष्म अनंत जीव वाले निगोद-पृथ्वी आदि सब जीव असंख्येय है-के तुल्य होते हैं। एक एक आकाश प्रदेश में उनके जीव प्रदेश अनंत होते हैं। इस प्रकार जघन्य पद में एक आकाश प्रदेश में
जघन्य पद लोकांत में होता है। वहां निगोद के देश तीन दिशाओं का ही स्पर्श करते हैं। शेष दिशाएं अलोक से आवृत होती हैं। तीन दिशाओं की स्पर्शना खण्ड गोलक में ही होती है। जिस गोलक में निगोद देशों की स्पर्शना छहों दिशाओं में होती है, वह उत्कृष्ट पद है। यह संपूर्ण गोलक लोक के मध्य में ही होता है।
देखें स्थापना
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गगनतेरह आकाश प्रदेशों नगम की स्थापना
//अर्धगोलक
चित्र नं.२ चित्र न.१
संपूर्ण गोलक ११४. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। ११४. भंते! बह ऐसा ही है, भंते ! वह ऐसा
____ ही है। १. भ. वृ. ११/११३-तत्र तयोर्जधन्येतरपदयोर्जघन्यपदं लोकांते भवति जत्थं षट्स्वपि दिक्षु निगोददेशैः स्पर्शना भवति तत्रोत्कृष्टपदं भवति, तच्चं त्ति यत्र गोलके स्पर्शना निगोददेशस्तिसृष्वेव दिक्षु भवति, शेष दिशामलोके समस्तगोलैः परिपूर्णगोलके भवति, नान्यत्र, खण्डगोनके न भवतीत्यर्थः, नावृतत्वात् सार्ध खण्डगोल एव भवतीति भावः छद्दिसिं ति यत्र पुनर्गोलके सम्पूर्ण गोलकश्च लोकमध्य एव स्यादिति।
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