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________________ एक्कारसमो उद्देसो : ग्यारहवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद सुदंसणसेट्टि-पदं सुदर्शनश्रेष्ठि-पदम् सुदर्शन श्रेष्ठी-पद ११५. तेणं कालेणं तेणं समएणं तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाणिज्यग्रामं ११५. उस काल और उस समय वाणिज्य वाणियग्गामे नामं नगरे होत्था- नाम नगरम् आसीत्-वर्णकः। दूतिपलाशं ग्राम नामक नगर था-वर्णक। दूतिवण्णओ। दूतिपलासे चेइए-वण्णओ चैत्यं-वर्णकः यावत् पृथ्वीशिलापट्टकः। तत्र पलाश चैत्य-वर्णक यावत् पृथ्वीजाव पुढविसिलापट्टओ। तत्थ णं वाणिज्यग्रामे नगरे सुदर्शनः नाम श्रेष्ठी शिलापट्टक। उस वाणिज्यग्राम नगर में वाणियग्गामे नगरे सुदंसणे नाम सेट्ठी परिवसति-आढ्यः यावत् बहुजनस्य सुदर्शन नाम का श्रेष्ठी रहता था-संपन्न परिवसइ-अड्डे जाव बहु-जणस्स अपरिभूतः श्रमणोपासकः अभिगतजीवा- यावत् बहुत जन के द्वारा अपरिभवनीय। अपरिभूए समणोवासए अभिगय- जीवः यावत् यथापरिगृहीतैः तपः कर्मभिः । श्रमणोपासक, जीव- अजीव को जानने जीवाजीवे जाव अहापरिग्गहिएहिं आत्मानं भावयन् विहरति। स्वामी वाला यावत् यथापरिगृहीत तपःकर्म के तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणे विहरइ। समवसृतः यावत् परिषद् पर्युपासते। द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ रह सामी समोसढे जाव परिसा रहा था। भगवान् महावीर आए यावत पज्जुवासइ॥ परिषद् पर्युपासना करने लगा। ११६. तए णं से सुदंसणे सेट्ठी इमीसे ततः सः सुदर्शनः श्रेष्ठी अनया कथया ११६. सुदर्शन श्रेष्ठी इस कथा को सुनकर कहाए लद्धद्वे समाणे हट्ठतुट्टे पहाए । लब्धार्थः सन् हृष्टतुष्टः स्नातः हृष्ट-तुष्ट हो गया। उसने स्नान किया, कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल- कृतबलिकर्मा कृतकौतुक-मंगल-प्रायश्चित्तः बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और पायच्छिते सव्वालंकारविभूसिए साओ सर्वालङ्कारविभूषितः स्वस्मात् गृहात् प्रायश्चित्त किया, सर्व अलंकार से गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडि- प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य सकोरण्ट- विभूषित होकर अपने घर से प्रतिनिक्खमित्ता सकोरेंटमल्ल-दामेणं माल्यदाम्ना छत्रेण ध्रियमाणेण पादविहार- निष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर कटछत्तेणं धरिज्जमाणेणं पायविहार चारेणं चारेण महत् पुरुषवागुरापरिक्षिप्तः सरैया की माला और दाम तथा छत्र को महयापुरिसवग्गुरापरिक्खित्ते वाणिय- वाणिज्य-ग्राम नगरं मध्यमध्येन धारण कर, विशाल पुरुष वर्ग से घिरा ग्गामं नगरं मझमज्झेणं निग्गच्छइ, निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव दूतिपलाशं चैत्यं हुआ वह वाणिज्यग्राम नगर के बीचों बीच निग्ग-च्छित्ता जेणेव दूतिपलासे चेइए यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव पैदल चलते हुए निकला, निकल कर जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं जहां दृतिपलाश चैत्य था, जहां श्रमण उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पञ्चविधेन अभिगमेन भगवान महावीर थे, वहां आया, वहां महावीरं पंचविहेणं अभि-गमेणं अभिगच्छति, (तद्यथा-सचित्तानां द्रव्याणां आकर पांच प्रकार के अभिगमों के साथ अभिगच्छइ, (तं जहा-सच्चित्ताणं व्युत्सर्जनया) यथा ऋषभदत्तः तथा । श्रमण भगवान् महावीर के पास गया। दव्वाणं विओसरणयाए) जहा त्रिविधया पर्युपासनाया पर्युपास्ते। (जैसे सचित्त द्रव्यों को छोड़ना, भ. ९/ उसभदत्तो जाव तिविहाए पज्जुवासणाए १४५) ऋषभदत्त की भांति वक्तव्यता पन्जुवासइ॥ यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा पर्युपासना की। ११७. तए णं समणे भगवं महावीरे सुदंणस्स सेट्ठिस्स तीसे य महति- महालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ ततः श्रमणः भगवान् महावीरः सुदर्शनस्य ११७. श्रमण भगवान् महावीर ने उस श्रेष्ठिनः तस्यां च महामहत्यां परिषदि धर्मं विशालतम परिषद् में सुदर्शन श्रेष्ठी को कथयति यावत् आज्ञाया आराधकः भवति। धर्म कहा यावत् आज्ञा की आराधना की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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