________________
भगवई
श.८ : उ.९ : सू. ४४२-४४५ सव्वबंधेणं भणियं तहेव देस-बंधेण वि। सर्वबन्धेन भणितं तथैव देशबन्धेनापि भाणियव्वं जाव कम्म-गस्स॥
भणितव्यं यावत् कर्मकस्य।
प्रकार जैसे सर्व बंध की वक्तव्यता है वही देश बंध के विषय में वक्तव्य है, यावत् कर्म शरीर देश बंधक है, सर्व बंधक नहीं है।
४४३. जस्स णं भंते! आहारगसरीरस्स
सव्वबंधे, से णं भंते ! ओरालिय- सरीरस्स किं बंधए? अबंधए? गोयमा! नो बंधए, अबंधए। एवं वेउब्वियस्स वि। तेयाकम्माणं जहेव ओरालिएणं समं भणियं तहेव भाणियव्वं॥
यस्य भदन्त ! आहरकशरीरस्य सर्वबन्धः, स भदन्त ! औदारिकशरीरस्य किं बन्धकः? अबन्धकः? गौतम! नो बन्धकः, अबन्धकः। एवं वैक्रियस्यापि। तैजस-कर्मणोः यथैव औदारिकेण समं भणितं तथैव भणितव्यम्।
४४३. भंते! जिसके आहारक शरीर का सर्व बंध है, भंते! क्या वह औदारिक शरीर का बंधक है ? अबंधक है? गौतम! बंधक नहीं है, अबंधक है। इसी प्रकार वैक्रिय शरीर की वक्तव्यता। तैजस और कर्म शरीर की औदारिक शरीर के साथ जो वक्तव्यता है, वहीं यहां वक्तव्य है।
४४४. जस्स णं भंते! आहारगसरीरस्स
देसबंधे. से णं भंते! ओरालियसरीरस्स किं बंधए? अबंधए? गोयमा! नो बंधए, अबंधए। एवं जहा आहारगस्स सव्वबंधेणं भणियं तहा देसबंधेण वि भाणियव्वं जाव कम्मगस्स।
यस्य भदन्त ! आहारकशरीरस्य देशबन्धः, स भदन्त ! औदारिकशरीरस्य किं बन्धकः? अबन्धकः? गौतम! नो बन्धकः, अबन्धकः। एवं यथा आहारकस्य सर्वबन्धेन भणितं तथा देशबन्धेनापि भणितव्यं यावत् कर्मकस्य।
४४४. भंते ! जिसके आहारक शरीर का देश बंध है, भंते ! क्या वह औदारिक शरीर का बंधक है ? अबंधक है? गौतम ! बंधक नहीं है, अबंधक है। इस प्रकार जैसे सर्व बंध की वक्तव्यता है, वहीं देशबंध के विषय में वक्तव्य है, यावत् कर्म शरीर देश बंधक है. सर्व बंधक नहीं है।
भाष्य
१.सूत्र ४३९-४४४
जिस समय औदारिक शरीर की रचना होती है, उस समय वैक्रिय शरीर की रचना नहीं होती इसलिए औदारिक शरीर की रचना करने वाला जीव वैक्रिय शरीर का अबंधक होता है। आहारक शरीर के लिए भी यही नियम है।
औदारिक शरीर की रचना के प्रथम समय (सर्व बंध के समय) में तैजस और कार्मण शरीर की पुनर्रचना होती है, इसलिए जीव को तैजस और कार्मण शरीर का बंधक कहा गया है। वह रचना देश बंध
(आंशिक) होती है। उनका सर्वबंध नहीं होता। उनकी पुनर्रचना का उद्देश्य है भवधारणीय शरीर (औदारिक और वैक्रिय शरीर) के साथ सामंजस्य स्थापित करना। सिद्धसेनगणि ने उनके प्रमाण की चर्चा की है। उससे सामंजस्य का तत्त्व फलित होता है। तैजस और कार्मण शरीर का जघन्य प्रमाण अंगुल का असंख्येय भाग, उत्कृष्ट प्रमाण औदारिक शरीर जितना, केवली समुद्घात के समय वे पूरे लोक में व्याप्त हो जाते हैं और मारणांतिक समुद्घात के समय वे लम्बाई में लोकांत से लोकांत तक फैल जाते हैं।'
४४५. जस्स णं भंते! तेयासरीरस्स
देसबंधे, से णं भंते! ओरालियसरीरस्स किं बंधए ? अबंधए? गोयमा! बंधए वा, अबंधए वा। जइ बंधए किं देसबंधए?सव्वबंधए?
यस्य भदन्त ! तैजसशरीरस्य देशबन्धः? स ४४५. 'भंते! जिसके तैजस शरीर का देश भदन्त ! औदारिकशरीरस्य किं बन्धकः? बंध है, भंते! क्या वह औदारिक शरीर अबन्धकः?
का बंधक है? अबंधक है? गौतम! बन्धकः वा, अबन्धकः वा। गौतम ! बंधक है अथवा अबंधक है। यदि बन्धकः किं देशबन्धकः? सर्व- यदि बंधक है तो क्या देश बंधक है? सर्व बन्धकः?
बंधक है? गौतम! देशबन्धकः वा, सर्वबन्धकः वा।। गौतम ! देश बंधक है अथवा सर्व बंधक है। वैक्रियशरीरस्य किं बन्धकः ? अबन्धकः? वैक्रिय शरीर का बंधक है? अबंधक है?
गोयमा!देसबंधए वा,सव्वबंधए वा। वेउब्वियसरीरस्स किं बंधए?
१. भ. वृ.८/४३१. न हि ।कसमये औदारिकवैक्रिययोबंधो विद्यत इति कृत्वा
नो बंधक इति। २. वही. ८.४३९.-नैजसस्य पुनः संदेवाविरहित्वाद् बंधको देशबंधकेन
सर्वबंधस्तु नास्त्येव नस्येनि। ३. (क) त, यू. भा. वृ. २/४०.-एनयोश्च नैजसकार्मणोरवरतः प्रमाण
मंगुलासंख्येयभागः उत्कृष्टतश्चौदरिकशरीरप्रमाणे, केवलिनः समुद्घाने लोकप्रमाणे वा भवतः, मारणान्निकसमुद्घाते वा आयामती लोकान्ता:श्लोकान्तायते स्यातामिति। (ख) त. रा. वा. २/४८ की वृत्ति-तैजसकार्मण जघन्येन यथोपानीदारिक शरीरप्रमाणे, उत्कर्षेण केवलीसमुद्घाते सर्वलोकप्रमाणे।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org