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भगवई
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गोयमा! पभू णं उरगजातिआसी-विसे गौतम! प्रभुः उरगजात्याशीविषः जंबुद्दीवप्पमाणमेत्तं बोदिं विसेणं जम्बूद्वीप- प्रमाणमात्रां 'बोंदि' विषेण विसपरिगयं विसट्टमाणं पकरेतए। विषपरिगतां दलन्तीं प्रकर्तुम् । विषयः तस्य विसए से विसट्टयाए, नो चेव णं संपत्तीए विषार्थतया, नो चैव सम्प्राप्त्या अकार्षः वा, करेंसुवा, करेंति वा, करिस्संति वा॥ कुर्वन्ति वा, करिष्यन्ति वा।
श.८ : उ. २ : सू. ९०-९२ गौतम! उरगजातिआशीविष जम्बूद्वीप प्रमाणशरीर को अपने विष से व्याप्त और परिपूर्ण करने में समर्थ है। यह विषय विष की शक्ति की दृष्टि से बतलाया गया है। क्रियात्मक रूप में न तो ऐसा किया है, न करता है और न करेगा।
९१. मणुस्सजातिआसिविसस्स णं भंते! मनुष्यजात्याशीविषस्य भदन्त! कियान् ९१. भन्ते! मनुष्यजाति आशीविष का केवतिए विसए पण्णत्ते? विषयः प्रज्ञप्त:?
कितना विषय प्रज्ञप्त है? गोयमा! पभू णं मणुस्सजाति- गौतम ! प्रभुः मनुष्यजात्याशीविषः समय- गौतम! मनुष्यजातिआशीविष समयक्षेत्र आसीविसे समयखेत्तप्पमाणमेत्तं बोदि । क्षेत्रप्रमाणमात्रां 'बोदि विषेण विषपरिगतां (अढाई द्वीप) प्रमाणशरीर को अपने विष विसेणं विसपरिगयं विसट्ट-माणं दलन्ती प्रकर्तुम्। विषयः तस्य विषार्थतया, से व्याप्त और परिपूर्ण करने में समर्थ है। पकरेत्तए। विसए से विसठ्ठ-याए, नो चेव नो चैव सम्प्राप्त्या अकार्षुः वा, कुर्वन्ति वा, यह विषय विष की शक्ति की दृष्टि से णं संपत्तीए करेंसु वा, करेंति वा, करिष्यन्ति वा।
बतलाया गया है। क्रियात्मक रूप में न तो करिस्संति वा॥
ऐसा किया है, न करता है और न करेगा।
भाष्य १. सूत्र ८६-९१
कहलाते हैं। जिसकी दाढा में विष होता है, वह आशीविष कहलाता है। कुछ अकलंक ने आशीविष के स्थान पर आस्यविष का प्रयोग किया प्राणी जन्म से आशीविष होते हैं और कुछ कर्म से। बिच्छू, मेंढक, सर्प है। प्रकृष्ट तपोबल वाला यति आस्यविष ऋद्धि को प्राप्त होता है। वह और मनुष्य ये जाति आशीविष हैं-जन्म से आशीविष हैं।'
मरण का अभिशाप देता है। अभिशप्त व्यक्ति के शरीर में विष व्याप्त सूत्रकार ने इनकी विषयात्मक क्षमता का निरूपण किया है। हो जाता है और वह मर जाता है। तिलोयपण्णत्ति और धवला में प्रायोगिक रूप में उसका चैकालिक प्रतिषेध किया है।
आशीविष ऋद्धि का उल्लेख मिलता है। उसका तात्पर्य है इस ऋद्धि तपश्चरण अथवा विद्या मंत्र आदि की साधना से अथवा किसी वाला 'मर जाओ' इस प्रकार का वचन प्रयोग करता है और व्यक्ति अन्य गुण से आशीविष की उपलब्धि हो जाती है, वे कर्म से आशीविष मर जाता है।' ९२. जइ कम्मआसीविसे किं नेरइय- यदि कर्माशीविषः किं नैरयिककर्माशीविषः? ९२. 'यदि कर्म आशीविष है तो क्या कम्मआसीविसे ?तिरिक्खजोणिय- तिर्यगयोनिककर्माशीविषः? मनुष्यकर्माशी- नैरयिक कर्मआशीविष है? तिर्यक्योनिक कम्मआसीविसे? मणुस्सकम्म- विषः?देवकर्माशीविषः?
कर्मआशीविष है? मनुष्यकर्मआशीविष आसीविसे? देवकम्मआसीविसे?
है? अथवा देवकर्मआशीविष है? गोयमा! नो नेरइयकम्मासीविसे, तिरि. गौतम! नो नैरयिककर्माशीविषः, तिर्यर- गौतम! नैरयिक कर्मआशीविष नहीं है। क्खजोणियकम्मासीविसे वि, योनिककर्माशीविषोऽपि, मनुष्यकर्माशी- तिर्यक्योनिक कर्मआशीविष भी है, मनुष्य मणुस्सकम्मासीविसे वि, देव- विषोऽपि, देवकर्माशीविषोऽपि।
कर्मआशीविष भी है और देव कर्मकम्मासीविसे वि॥
आशीविष भी है।
भाष्य १. सूत्र ९२
विशेषता से प्राप्त होती है, इसका स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं है। कर्म से आविष तीन गति के जीव होते हैं-तिर्यक्योनिक, वायुकाय और संख्येय वर्ष आयु वाले गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यक् के वैक्रिय मनुष्य और देव। मनुष्य अपनी गुणात्मक विशेषता के कारण कर्म से लब्धि होती है। प्रज्ञापना में इसका निर्देश है। जैसे वैक्रिय लब्धि आशीविष होता है।
होती है वैसे ही आशीविष लब्धि भी उसे प्राप्त हो सकती है। तिर्यक्योनिक में संख्येय वर्ष की आयु वाला गर्भज तिर्यक देवों को कर्म से आशीविष ऋद्धि उपलब्ध नहीं होती इसलिए पंचेन्द्रिय कर्म से आशीविष होता है। यह ऋद्धि उसे किस गुणात्मक पर्याप्त अवस्था में उसका निषेध किया गया है। जन्म की प्रारम्भ १. भ. वृ. ८/८६-८७-जात्या-जन्मनाशीविषाः, जात्याशीविषाः।
३. त, रा. वा. ३/३६-प्रकृष्टतपोबलयतयो यं बुवते म्रियस्वेति स तत्क्षण एव २. वही, ८/८६-८-कर्मणा क्रियया शापादिनोपघातकरणे नाशीविषाः महाविष-परीतो म्रियते, ते आस्यविषाः।, कर्माशीविषाः। तब पंचेन्द्रियतियंचो मनुष्याश्च कर्माशीविषाः पर्याप्सका एव, ४. (क) ति. प. १/१०७८ एतेहि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणतः खल्वाशीविषाः भवन्ति, (ख) ष. खं, धवला ९/४॥ शापप्रदानेनैव व्यापादयन्तीत्यर्थः।
५. पण्ण, २१/५३०॥
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