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________________ बीओ उद्देशो : दूसरा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद आसीविस-पदं आशीविष-पदम् ८६. कतिविहा णं भंते! आसीविसा कतिविधाः भदन्त ! आशीविषाः प्रज्ञप्ताः? पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा आसीविसा पण्णत्ता, तं गौतम! द्विविधाः आशीविषाः प्रज्ञप्ताः, जहा-जातिआसीविसा य, कम्म- तद्यथा-जात्याशीविषाश्च, कर्माशीआसीविसा य॥ विषाश्च आशीविष-पद ८६. 'भन्ते! आशीविष कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं? गौतम! आशीविष दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-जातिआशीविष और कर्मआशीविष। ८७. जातिआसीविसा णं भंते! कतिविहा जात्याशीविषाः भदन्त! कतिविधाः ८७. भन्ते! जातिआशीविष कितने प्रकार के पण्णत्ता? प्रज्ञप्ताः? प्रज्ञप्त है? गोयमा! चउब्विहा पण्णत्ता, तं । गौतम! चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा- गौतम! चार प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसेजहा-विच्छ यजाति आसीविसे, वृश्चिकजात्याशीविषः, मण्डूकजात्या- वृश्चिकजातिआशीविष, मंडूक जातिमंडुक्कजाति-आसीविसे, उरग-जाति- शीविषः, उरग-जात्याशीविषः, मनुष्य- आशीविष, उरगजातिआशीविष और आसिविसे, मणुस्सजाति-आसीविसे। जात्याशीविषः। मनुष्यजातिआशीविष। ८८. विच्छुयजातिआसीविसस्स णं भंते! वृश्चिकजात्याशीविषस्य भदन्त ! कियान् ८८. भन्ते! वृश्चिकजातिआशीविष का केवतिए विसए पण्णत्ते? विषयः प्रज्ञप्तः? कितना विषय प्रज्ञप्त है? गोयमा! पभू णं विच्छुयजाति- गौतम! प्रभुः वृश्चिकजात्याशीविषः गौतम! वृश्चिकजातिआशीविष अर्ध आसीविसे अद्धभरहप्पमाणमेत्तं बोंदि अर्धभरतप्रमाणमात्रां 'बोदिं' विषेण विष- भरतप्रमाणशरीर को अपने विष से व्याप्त विसेणं विसपरिगयं विसट्ट-माणं परिगतां दलन्ती प्रकर्तुम्। विषयस्तस्य और परिपूर्ण करने में समर्थ है। यह विषय पकरेत्तए। विसए से विस-ट्ठयाए, नो चेव । विषार्थतया, नो चैव सम्प्राप्त्या अकार्षुः वा, विष की शक्ति की दृष्टि से बतलाया गया णं संपत्तीए करेंसु वा, करेंति वा, कुर्वन्ति वा, करिष्यन्ति वा। है, क्रियात्मक रूप में न तो ऐसा किया है, करिस्संति वा॥ न करता है और न करेगा। ८९. मंडुक्कजातिआसीविसस्स णं भंते! मण्डूकजात्याशीविषस्य भदन्त ! कियान ८९. भन्ते! मण्डूकजातिआशीविष का केवतिए विसए पण्णत्ते? विषयः प्रज्ञप्तः? कितना विषय प्रज्ञाप्त है? गोयमा! पभू णं मंडुक्कजाति- गौतम! प्रभुः मण्डूकजात्याशीविष: भरत- गौतम! मंडूकजातिआशीविष भरतप्रमाण आसिविसे भरहप्पमाणमेत्तं बोदि विसेणं प्रमाणमात्रां 'बोंदि' विषेण विषपरिगतां शरीर को अपने विष से व्याप्त और परिपूर्ण विसपरिगयं विसट्टमाणं पकरेत्तए। दलन्तीं प्रकर्तुम्। विषयः तस्य विषार्थतया, करने में समर्थ है। यह विषय विष की विसए से विसद्वयाए, नो चेव णं संपत्तीए नो चैव सम्प्राप्त्या अकार्षः वा, कुर्वन्ति वा, शक्ति की दृष्टि से बतलाया गया है। करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा॥ करिष्यन्ति वा। क्रियात्मक रूप में न तो ऐसा किया है, न करता है और न करेगा। ९०. उरगजातिआसीविसस्स णं भंते! उरगजात्याशीविषस्य भदन्त! कियान् ९०. भन्ते ! उरगजातिआशीविष का कितना केवतिए विसए पण्णते? विषयः प्रज्ञप्तः। विषय प्रज्ञप्त है? For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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