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तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया ४४. पलासे णं भंते? एगपत्तए किं ४४. पलाशं भदन्त! एकपत्रकं किम् एगजीवे? अणेगजीवे?
एकजीवः? अनेकजीवः? एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा एवम् उत्पलोद्देशकवक्तव्यता अपरिशेषा भाणियव्वा, नवरं-सरीरोगाहणा। भणितव्या, नवरं-शरीरावगाहना जघन्येन जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, अङ्गलस्य असंख्येयतमभागम्, उत्कर्षेण उक्कोसेणं गाउयपुहत्ता। देवेहितो न गव्यूतपृथक्ता। देवेभ्यः न उपपद्यन्ते। उववज्जति॥
हिन्दी अनुवाद ४४. भंते! एकपत्रक पलाश क्या एक जीव वाला है? अनेक जीव वाला है? इस प्रकार उत्पल उद्देशक की वक्तव्यता सम्पूर्ण रूप से वक्तव्य है. इतना विशेष है-शरीर की अवगाहना जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्टतः पृथक्त्व गव्यूत। देव गति से उपपन्न नहीं होते हैं।
४५. लेसासु-ते णं भंते! जीवा किं कण्ह- लेस्सा? नीललेस्सा? काउलेस्सा?
लेश्यासु ते भदन्त? जीवाः किं कृष्ण- ४५. भंते! वे जीव कृष्ण लेश्या वाले हैं? लेश्याः? नीललेश्याः ? कापोतलेश्याः? नील लेश्या वाले हैं ? कापोत लेश्या वाले
गोयमा! कण्हलेस्से वा नीललेस्से वा गौतम! कृष्णलेश्यः वा नीललेश्यः वा काउल्लेस्से वा-छव्वीसं भंगा, सेसं तं कापोतलेश्यः वा-षइविंशतिः भङ्गाः, शेषं चेव॥
तत् चैव।
गौतम ! कृष्ण लेश्या वाले भी हैं, नील लेश्या वाले भी हैं, कापोत लेश्या वाले भी हैं-छब्बीस भंग होते हैं, शेष पूर्ववत।
४६. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
४६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही
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