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श.८ : उ. १० : सू. ४८२-४८४
भगवई
गोयमा ! सिय आवेढिय-परिवेढिए, सिय नो आवेढिय-परिवेढिए। जइ आवेढिय- परिवेढिए नियमा अणंतेहिं॥
गौतम ! स्यात् आवेष्टित-परिवेष्टितः स्यात् नो आवेष्टित-परिवेष्टितः। यदि आवेष्टित- परि-वेष्टितः नियमात अनन्तैः।
गौतम! स्यात् आवेष्टित परिवेष्टित है, स्यात् आवेष्टित परिवेष्टित नहीं है। यदि आवेष्टित-परिवेष्टित है तो वह नियमतः अनंत अविभाग परिच्छेदों से आवेष्टित परिवेष्टित है।
४८३. भंते! एक एक नैरयिक का एक एक जीव-प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग परिच्छेदों से आवेष्टित परिवेष्टित
४८३. एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स एकैकस्य भदन्त! नैरयिकस्य एकैकः एगमेगे जीवपदेसे नाणावरणिज्ज-स्स जीवप्रदेशः ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः कम्मस्स केवतिएहिं अविभाग- कियद्भिः अविभागपरिच्छेदैः आवेष्टितपलिच्छेदेहिं आवेढिय-परिवेदिए? परिवेष्टितः? गोयमा! नियम अणंतेहिं। जहा गौतम ! नियमम् अनन्तैः। यथा नैरयिकस्य नेरझ्यस्स एवं जाव वेमाणियस्स, एवं यावत् वैमानिकस्य, नवरं-मनुष्यस्य नवरं-मणूसस्स जहा जीवस्स॥ यथा जीवस्य।
गौतम! नियमतः अनंत अविभाग परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित है। नैरयिक की भांति वैमानिक तक के दण्डकों की वक्तव्यता, इतना विशेष है--मनुष्य जीव की भांति वक्तव्य है।
४८४. एगमेगस्स णं भंते। जीवस्स एकैकस्य भदन्त! जीवस्य एकैकः एगमेगे जीवपदेसे दरिसणावरणि- जीवप्रदेशः दर्शनावरणीयस्य कर्मणः ज्जस्स कम्मस्स केवतिएहिं अवि- कियन्दिः अविभागपरिच्छेदैः आवेष्टितभागपलिच्छेदेहिं आवेढिय-परिवेढिए? परिवेष्टितः? गोयमा! नियम अणंतेहिं। जहा जीवस्स गौतम! नियमम अनन्तैः। यथा जीवस्य एवं एवं जाव वेमाणियस्स, नवरं-मणूसस्स यावत् वैमानिकस्य, नवरम्-मनुष्यस्य यथा जहा जीवस्स। एवं जहेव नाणावर- जीवस्य एवं यथैव ज्ञानावरणीयस्य तथैव णिज्जस्स तहेव दंडगो भाणियव्वो जाव दण्डकः भणितव्यः यावत् वैमानिकस्य। एवं वेमाणिय-स्स। एवं जाव अंतराइयस्स यावत् आन्तरायिकस्य भणितव्यम्, भाणि-यव्यं, नवरं-वेयणिज्जस्स, नवरम्-वेदनीयस्य, आयुष्कस्य, नाम्नः, आउय-स्स, नामस्स, गोयस्स-एएसिं गोत्रस्य-एतेषां चतुर्णामपि कर्मणां मनुष्यस्य चउण्ह वि कम्माण मणूसस्स जहा यथा नैरयिकस्य तथा भणितव्यम् ? शेषं तत् नेरइयस्स तहा भाणियव्वं । सेसं तं चेव॥ चैव।
४८४. भंते! एक एक जीव का एक-एक जीव-प्रदेश दर्शनावरणीय कर्म के कितने अविभाग परिच्छेदों से आवेष्टितपरिवेष्टित है? इस प्रकार जैसे ज्ञानावरणीय की वक्तव्यता वैसे ही दर्शनावरणीय के वैमानिक तक के दण्डकों की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् आंतरायिक की वक्तव्यता, इतना विशेष है-वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र-इन चार कर्मों के विषय में मनुष्य की नैरयिक की भांति वक्तव्यता।
भाष्य
१.सूत्र ४७७-४८४
कर्म प्रकृति की जानकारी के लिए द्रष्टव्य ६/३३-३५ का भाष्य। अभयदेवसूरि ने अविभाग प्रतिच्छेद का शाब्दिक अर्थ किया है। प्रतिच्छेद का अर्थ है अंश। जिसका कोई विभाग न हो, वह अंश अविभाग प्रतिच्छेद-निरंश अंश कहलाता है।'
कर्म ग्रंथ, पंच संग्रह, गोम्मटसार' और धवला' में इसका
विशद वर्णन उपलब्ध है।
जघन्य गुण अनंत अविभागी प्रतिच्छेदों से निष्पन्न होता है। धवला में इसकी प्रक्रिया का निर्देश है। सर्व मंद अनुभाग से युक्त परमाण को ग्रहण करके वर्ण, गंध, रस को छोड़कर केवल स्पर्श (एक गुण) का ही बुद्धि से ग्रहण कर उसका विभाग रहित छेद होने तक प्रज्ञा के द्वारा छेद करना चाहिए। नहीं छेदने योग्य वह अंतिम खण्ड
१.भ. वृ.८/४७९ २. कर्मग्रंथ भाग ५ गाथा ९५| ३. पंचसंग्रह गाथा २२२-२८३। 2. गोम्मटसार अजीवकांड ना.२२३-२२६ ।
५. धवला १४,५.६,५३९/४५०। ६. धवला १४,५,६,५३९/४५०/६ सो च जहण्णगुणो अणंतेहि अविभाग
पडिच्छेदेहिं णिप्पण्णो।
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