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________________ भगवई श.८ : उ. १० : सू. ४८५ अविभाग प्रतिच्छेद द्रव्य, गुण, अनुभागः, योग वीर्य आदि में यह सिद्धसेन गणि का निरूपण है।' होता है। ४. अन्योन्य अनुप्रवेश-आत्मा के प्रदेश और कर्म पुद्गल स्कंधों जीव का प्रत्येक प्रदेश कर्म के अनंत अविभाग प्रतिच्छेदों से का परस्पर अनुप्रवेश हो जाता है, उसका नाम बंध है। यह पूज्यपाद आवेष्टित-परिवेष्टित होता है। यह वाक्य जीव के प्रदेश और कर्म की व्याख्या है। स्कंध के संबंध का व्याख्या सूत्र है। ५. एक क्षेत्रावगाह-जीव के प्रदेश और कर्म पुद्गल स्कंधों के बंध काल में जीव के प्रदेश और कर्म पुद्गल स्कंध-दोनों का परस्पर परिणमन का निमित्त पाकर एक क्षेत्र में अवगाह होता है, वह विशिष्ट प्रकार का परिणमन होता है। इस संबंध अथवा परिणमन को तदुभय बंध है। यह आचार्य कुन्दकुन्द का अभिमत है। अनेक पदों और उपमाओं के द्वारा निरूपित किया गया है। उक्त सब निरूपणों से दो सिद्धांत फलित होते हैं। १. आवेष्टन-परिवेष्टन १. आवेष्टन आदि का फलित यह है कि जीव प्रदेश और कर्म २. दूध और पानी की भांति परस्पर अनुगत। पुद्गल के सकंधों में परस्पर आश्लेष होता है। ३. दूध और पानी की भांति परस्पराश्लेष। २. एक क्षेत्रावगाह के सिद्धांत का फलित यह है कि जीव प्रदेश १. आत्मा और कर्म का अन्योन्य अनुप्रवेश। और कर्म पुद्गल के स्कंधों का एक क्षेत्र में अवगाह होता है, अग्नि और ५. जीव और कर्म का एक क्षेत्र में अवगाह। लोह पिण्ड की भांति अन्योन्य अनुप्रवेश नहीं होता। १. आवेष्टन-परिवेष्टन-इसके अनुसार जीव के एक प्रदेश को आचार्य कुन्दकुन्द के सिद्धांत में सांख्यदर्शन का वह प्रतिबिम्ब ज्ञानावरणीय आदि कर्म समूह के अनंत-अनंत अविभाग प्रतिच्छेद दिखाई देता है, जिससे आत्मा सदा मुक्त है, बंध और मोक्ष प्रकृति के आवृत करते हैं, ढक्कन बन जाते हैं, लपेटते हैं, चारों ओर से घेर होता है। लेते हैं। इस अवगाह के सिद्धांत में एक प्रश्न अनुत्तरित रहता है कि २. अन्योन्य अनुगमन-जैसे दूध और पानी में परस्पर अनुगमन आकाश के प्रदेशों में जीव का अवगाह है किन्तु न आकाश के प्रदेशों होता है, वैसे जीव-प्रदेश और कर्म के पुल स्कंधों में परस्पर अनुगमन से जीव के प्रदेश प्रभावित होते हैं और न जीव के प्रदेशों से आकाश के होता है-यह सिद्धसेन दिवाकर का निरूपण है।' प्रदेश प्रभावित होते है। केवल अवगाह मात्र से प्रभावित होने या ३. परस्पर श्लेष-जैसे दूध और पानी में परस्पर आश्लेष होता विशिष्ट परिणमन होने का सिद्धांत विमर्शनीय है। है, वैसे जीव प्रदेश और कर्म पुद्गल स्कंधों में परस्पर आश्लेष होता है, कम्माणं परोप्परं नियमा-भयणा-पद कर्मणा परस्परं नियम-भजना पदम् कर्मों का परस्पर नियम-भजना पद ४८५. जस्स णं भंते! नाणावरणिज्ज यस्य भदन्त ! ज्ञानावरणीयं तस्य दर्शना- ४८५. 'भंते! जिसके ज्ञानावरणीय है, क्या तस्स दरिसणावरणिज्ज? जस्स वरणीयाम् ? यस्य दर्शनावरणीयं तस्य उसके दर्शनावरणीय होता है? जिसके दंसणावरण्णिजं तस्स नाणावर- ज्ञानावरणीयम् ? दर्शनावरणीय है, क्या उसके ज्ञानाणिज्जं? वरणीय होता है ? गोयमा! जस्स णं नाणावरणिज्जं तस्स गौतम ! यस्य ज्ञानावरणीयं तस्य दर्शना- गौतम! जिसके ज्ञानावरणीय है; उसके दसणावरणिज्जं नियम अत्थि, जस्स णं वरणीयं नियमम अत्थि. यस्य दर्शनावरणीय दर्शनावरणीय नियमतः होता है। जिसके दरिसणावरणिज्जं तस्स वि तस्यापि ज्ञानावरणीयं नियमम् अस्ति। दर्शनावरणीय है, उसके ज्ञानावरणीय नाणावरणिज्ज नियम अत्थि।। नियमतः होता है। १. धवला १२.४.२.८.१०.९/१२१० सव्वमंदाणुभागपरमाणुधेनूण वण्णगंधासे मोनूण पासं चेव बुद्धीए धेत्तूण तस्स पण्णाच्छेदो कायव्वो जाव विभागवज्जिदछेदोति। तस्य अंतिमस्स खण्डस्स उच्छेज्जस्स अविभाग पडिच्छेद इदिसण्णा। २.गोम्मटसार जीवकाण्ड ५९/१५४/१८ 3.(क) धवला १४.५.६.५३९, ४५०। (ख) प्रवचनसार गाथा ७२, तथा उसकी वृत्ति। ४. धवला १२,४.२,७.१९९/१२/३। ५. धवला १०,४,२,४.१७८/४४०/५। ६.पंचसंग्रह गाथा ३९७१ ७. सन्मति तर्क १/४७-४८ द्रष्टव्य भगवई। १.३१२-१३ का भाष्य। ८. नत्त्वार्थ सूत्र ८/३-भाष्यानुसारिणी वृनि-बंधनं बंधः परस्पराश्लेषः प्रदेश पुद्गलानां क्षीरोदकवत् प्रकृत्यादिभेदः। ... सर्वार्थसिद्धि १/४ की वृत्ति-आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बंधः । १०. प्रवचनसार २/८५/ फासेहिं पुग्गलाणं बंधो, जीवस्स रागमादीहिं। अण्णोण्णस्सवगाहो, पुग्गलजीवप्पगो भणिदो। यः पुनः जीवकर्मपुद्गलयोः परस्परपरिणामनिमित्तमात्रत्वेन विशिष्टनर: परस्परमवगाहः स तदुभयबंधः। ११. प्रवचनसार २/९३-९४ गेहदि णेव ण मुंचदि करेदि ण दि पोग्गलाणि कम्माणि। जीवो पुग्गलमज्झे वट्टण्णपि सव्वकालेसु॥ स इदाणिं कत्ता संसग्गपरिणामस्स दव्यजादस्य। आदीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मधूलीहिं। १२. सांख्यकारिका ६२ तस्मान्न बध्यतेऽन्द्रा न मुच्यते नापि संसरति कश्चिद। संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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