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आमुख
वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य नौ हैं, उनमें सातवां द्रव्य-दिक् दिशा है। जैन दर्शन के अनुसार दिशा स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। वह आकाश का एक विभाग है। प्रस्तुत प्रकरण में दिशा मुख्यतः प्रतिपाद्य नहीं है। प्रतिपाद्य विषय है-दिशा में व्याप्त होने वाले जीव और अजीव का बोध कराना।
प्रस्तुत आगम में शरीर का निरूपण पहले हो चुका है। प्रस्तुत शतक में पुनः शरीर का निरूपण किया गया है, उसमें प्रज्ञापना के पांचवें पद का समवतार है। इसी प्रकार योनि पद में प्रज्ञापना के नौवें पद और वेदना पद में प्रज्ञापना के पैंतीसवें पद का समवतार है। भिक्षु प्रतिमा में दशाश्रुतस्कंध की सातवीं दशा (सूत्र-४.२५) का समवतार है। द्वीप से संबद्ध अट्ठाईस उद्देशक में जीवाभिगम' की भांति वक्तव्यता का निर्देश है। अंग में अंगबाह्य श्रुत का समवतार सूचित करता है कि आगमों के संकलन काल में कुछ प्रश्नोत्तरों का संवर्द्धन किया गया है। प्रस्तुत आगम में शरीर, योनि, वेदना, भिक्षु प्रतिमा आदि का पाठ होता और प्रज्ञापना में उन पाठों का समवतार होता-'जहा विआहपण्णत्तीए'-तो रचना अधिक संगत होती। यह समवतार संकलन काल में किया गया अथवा लिपि काल में ? यह अन्वेष्टव्य विषय है। यदि लिपिकाल में होता तो पूर्ण पाठ प्रज्ञापना आदि में लिखा गया, वैसा भगवती में लिखा जाता, प्रज्ञापना आदि में भगवती का समवतार कर दिया जाता। तात्पर्य में कोई अंतर नहीं आता। अधिक संभव है संकलन काल में ही यह परिवर्तन हुआ है। हो सकता है अंगश्रुत की संवादिता के लिए ऐसा किया गया हो।
प्रस्तुत आगम में ईर्यापथिकी क्रिया का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है। प्रथम उल्लेख प्रथम शतक" में, द्वितीय उल्लेख तीसरे शतक' में, तीसरा उल्लेख छठे शतक' में, चौथा उल्लेख सातवें शतक में, पांचवां उल्लेख आठवें शतक" में और छठा उल्लेख प्रस्तुतशतक' में हुआ है। ईर्यापथिकी क्रिया का विस्तृत वर्णन सूत्रकृतांग में भी है। स्थानांग में अजीव क्रिया के दो भेद बतलाए गए हैं-ईर्यापथिकी क्रिया और सांपरायिकी क्रिया। प्रज्ञापना में ऐपिथिक बंध की अपेक्षा सातवेदनीय की दो समय की स्थिति बतलायी गयी है। भगवती के अठारहवें शतक में भावितात्मा अणगार के ईर्यापथिकी क्रिया होती है, इस विषय का उल्लेख है। उत्तराध्ययन में ईर्यापथिकी क्रिया केवली के होती है इसका उल्लेख है। इन सबका समग्रता से अध्ययन करने पर ईर्यापथिकी के व्यापक स्वरूप को समझा जा सकता है।
आलोचना के विषय में आठवें शतक में बतलाया गया है। यहां उससे भिन्न निर्देश है। तुलना के लिए दोनों प्रकरणों को एक साथ पढ़ना जरूरी है।
प्रस्तुत आगम में देवों का अनेक रूपों में वर्णन किया गया है। सूत्रांक २३ से ३८ तक पारस्परिक शिष्टाचार का निर्देश है। यह व्यवहार कौशल का सुंदर निदर्शन है। इससे यह प्रमाणित होता है कि व्यवहार कौशल का मूल्य सर्वत्र है।
प्रस्तुत आगम में महावीर और गौतम के संवाद प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। कुछ संवाद भगवान पार्श्व के शिष्यों के साथ भी मिलते हैं। क्वचित् महावीर के अपने शिष्यों के साथ भी संवाद मिलते हैं। अणगार श्याम हस्ती का संवाद गौतम के साथ हुआ है, यह एक उल्लेखनीय घटना है। इस संवाद में वायस्त्रिंश अथवा तावत्त्रिंश देवों की उत्पत्ति की घटना का श्यामहस्ती द्वारा उल्लेख करना, गौतम का संदिग्ध होना, श्रमण
१. वै. सू.--१/१/५ पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति ।
द्रव्याणि। २. द्रष्टव्य सूत्र १०.१-७ का भाष्य। ३. भ. १/३४३ ४. वही, १०८ ५. वही, १०.१५॥ ६. वही, १०/१६-१७ ७. वही, १०.१८ ८. वही १०/१०२। ९.जीवा. ३/२२७१ १०. भ. १/४४४-४४५ ११. वही ३/१४८।
१२. भ. ६/२९। १३. वही, ७/१२५-१२६ । १४. वही, ८/३०२-३०३। १५. वही, १०/११-१४॥ १६. सूय. २/२/१६। १७. ठाणं २/४1 १८. पण्ण.सू.२३-६३,१७९॥ १९. भ. १८/१५९। २०. उत्तर. २९/७२। २१. भ.८/२५१-३५५॥ २२. वही, १०/१०-२१॥ २३. वही, १०/४०-५१॥
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