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भगवई
भांति वह प्रशस्त लेश्या में ही अवधिज्ञानी हुआ है, उसमें प्रशस्त लेश्या का ही ग्रहण होना चाहिए। उसमें कृष्ण आदि तीन लेश्याएं
५७. से णं भंते! कतिसु नाणेसु होज्जा ? गोयमा ! तिसु वा, चउसु वा होज्जा । तिसु होमाणे आभिणि-बोहियनाणसुयना - ओहिनाणेसु होज्जा, चउसु star आभिणि बोहियनाण-सुयनाणओहिनाण-मणपज्जवनाणेसु होज्जा ॥
५८. से णं भंते! किं सजोगी होज्जा ? अजोगी होज्जा ?
गोयमा ! सजोगी होज्जा, नो अजोगी होज्जा ।
जइ सजोगी होज्जा, किं मणजोगी होज्जा ? वइजोगी होज्जा ? काय जोगी होज्जा ?
गोयमा! मणजोगी वा होज्जा, वइजोगी वा होज्जा, कायजोगी वा होज्जा ॥
१. सूत्र ५७
अश्रुत्वा पुरुष सम्यक्त्व और चारित्र की उपलब्धि के पश्चात् तत्काल अवधिज्ञान प्राप्त कर लेता है अतः उसे मनः पर्यवज्ञान की
५९. से णं भंते! किं सागारोवउत्ते होज्जा ? अणागारोवउत्ते होज्जा ?
गोयमा! सागारोवउत्ते वा होज्जा, अणागारोवउत्ते वा होज्जा ।।
६०. से णं भंते! कयरम्मि संघयणे होज्जा ?
स भदन्त! कतिषु ज्ञानेषु भवति ? गौतम! त्रिषु वा, चतुर्षु वा भवति । त्रिषु भवन् आभिनिबोधिकज्ञान श्रुतज्ञानअवधिज्ञानेषु चतुर्षु भवन् आभिनिबोधिकज्ञान- श्रुतज्ञान- अवधिज्ञान- मनः पर्यवज्ञानेषु भवति ।
भाष्य
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श. ९ : उ. ३१ : सू. ५७-६०
द्रव्यलेश्या हो सकती हैं, भाव-लेश्या नहीं।' श्रुत्वा प्रकरण के लिए द्रष्टव्य ५/९४-९९ का भाष्य ।
स भदन्त ! किं सयोगी भवति ? अयोगी भवति?
गौतम! सयोगी भवति, नो अयोगी भवति ।
यदि सयोगी भवति, किं मनोयोगी भवति ? वागयोगी भवति ? काययोगी भवति ?
प्राप्ति नहीं होती । श्रुत्वा पुरुष पहले से ही मुनि दीक्षा में दीक्षित होता है और वह मनः पर्यवज्ञान की उपलब्धि भी कर लेता है। अतः अवधिज्ञान की उत्पत्ति के समय वह चार ज्ञान से सम्पन्न हो जाता है। *
गौतम! मनोयोगी वा भवति, वाग्योगी वा भवति, काययोगी वा भवति ।
१. भ. जो. ३ । पू. ३२ का वार्तिक- ईहा वृत्तिकार कह्यं यद्यपि भावलेश्या त्रिण प्रशस्त नैं विष हीज अवधिज्ञान लहे तो पिण द्रव्यलेश्या आश्रयी छह लेश्या विषे पिण लाभ, सम्यक्त्व श्रुत नीं परै, यदाह - 'समत्तसुयं सव्वासु 'लभ' इति । वलि ते सम्यक्त्व अ श्रुत ते ज्ञान ए पाम्ये छते छहुं लेश्या मैं विषे हुवै इम कहिये इति वृत्ती ।
स भदन्त ! साकारोपयुक्तः भवति ? अनाकारोपयुक्तः भवति?
इहा ए भाव सम्यक्त्व अर्ने ज्ञान पार्मे ते वेलां तीन भली लैश्याहीज हुवे अर्ने सम्यक्त्व ज्ञान पाया पर्छ छहुं लेश्या हुवै। तिम अवधिज्ञान उपजै ते वेला तीन भी लेश्या ही हुवै। ते माटै इहां छ लेश्या कही ते द्रव्य श्या आश्रयी संभवे इति ।
जे अवधिज्ञान पायां पर्छ अप्रशस्त वर्ते तेहमें ते अप्रशस्त लेश्या पण हुवे जे
गौतम! साकारोपयुक्तः वा भवति, अनाकारोपयुक्तः वा भवति ।
स भदन्त ! कतरे संहनने भवति ?
५७. भंते! उसमें कितने ज्ञान होते हैं? गौतम! तीन अथवा चार। तीन होने पर आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान । चार होने पर आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान |
५८. भंते! क्या वह योग सहित होता है? योग रहित होता है?
गौतम! योग सहित होता है, योग रहित नहीं होता।
यदि योग सहित होता है तो क्या मनोयोगी होता है? वचनयोगी होता है? काययोगी होता है?
गौतम! मनोयोगी भी होता है, वचनयोगी भी होता है. काययोगी भी होता है।
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५९. भंते! क्या वह साकार उपयोग से युक्त होता है? अनाकार उपयोग से युक्त होता है?
गौतम! वह साकार उपयोग से भी युक्त होता है, अनाकार उपयोग से भी युक्त होता है।
६०. भंते! वह किस संहनन वाला होता है?
पन्नवणा पद १७ में च्यार ज्ञानी में ६ लेश्या कही । निहां वृत्तिकार मंद अध्यवसाय रूप कृष्णलेश्या मनपर्यायज्ञानी नैं कही। ते भणी माठा अध्यवसाय हुवै ते वेला अशुभ भाव लेश्या कहिये। अर्ने ए तो केवल सन्मुख छै ने भणी ऊंचो चढ़े। अवधि पायां पछे तत्काल चढते परिणामे करि केवल पावै, ते भणी असोच्या नीं परे भला अध्यवसाय कह्या अर्ने माठा वर्ज्या । तेणे करी माठी भाव लेश्या पिण न हवै, ते माटे द्रव्य छ लेश्या नै विषे अवधि ऊपजै छै ।
२. भ. वृ. ९/५७ - मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानिनोवधिज्ञानोत्पत्तौ ज्ञानचतुष्ट्यभावाच्चतुर्षु ज्ञानेष्वधिकृतावधिज्ञानी भवेदिति ।
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